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ज्ञान और कर्म । [द्वितीय भाग ___ लगभग बीस पचीस वर्ष पहले एक बार इस मामलेका आन्दोलन हुआ था, और उसमें हिन्दूसमाजके और विलायतसे लौटी हुई मण्डलीके कई गण्य मान्य उत्साही सज्जन शामिल थे। उस समय दो-एक प्रतिष्ठित अंगरेजों और विलायतसे लौटे बंगालियोंसे पूछने पर मालम हुआ था कि विलायतमें, इतने खर्चमें, जितना कि चंदा करके जमा किया जा सकता है, एक छोटा-मोटा हिन्दूआश्रम स्थापित किया जा सकता है, और वहाँ जानेवाले लोग उसमें हिन्दुओंकी रहन-सहन और आचरणके साथ, और जी चाहे तो एकदम निरामिषभोजी होकर, अनायास रह सकते हैं। हिन्दू. जातिके विद्वान् पण्डितोंसे पूछने पर मालूम हुआ था कि हिन्दूके लिए उचित आचरण करके कोई विलायतमें रहे तो लौटने पर उसे हिन्दूसमाजमें मिला लेनेमें कोई विशेष बाधा नहीं है। किन्तु इस प्रस्तावके उद्योगी लोगोंमें मतभेद हो जानेके कारण इस सम्बन्धमें कुछ काम न हो सका। लेकिन इस समय भी बीचबीचमें यह प्रसंग उठता है, और किसी समय विलायतमें हिन्दूआश्रम स्थापित होनेकी आशाको दुराशा मानकर एकदम छोड़ देनेको जी नहीं चाहता। जो लोग बैरिस्टर होनेके लिए विलायतयात्रा करते हैं, उनके पक्षमें यह आपत्ति हो सकती है कि वहाँ उनकी शिक्षाके लिए स्थापित जो 'इन् ' नामक विद्यामन्दिर है, उसमें, वहाँके नियमानुसार, सब छात्रोंको एकत्र होकर नियमितसंख्यक भोजों (दावतों) में शामिल होना पड़ता है; अतएव वे हिन्दू-आश्रममें नहीं रह सकेंगे। किन्तु यह आपत्ति अखण्डनीय नहीं जान पड़ती। हिन्दूसमाजकी ओरसे उपयुक्त रूपसे आवेदन होने पर 'इन् ' के सञ्चालक लोग हिन्दू छात्रोंके सम्बन्धमें अपने प्रचलित नियमको कुछ बदलनेके लिए राजी न होंगे, ऐसी आशंका करनेका कोई कारण नहीं देख पड़ता।
बहुत लोग इस बातको असंगत समझते हैं कि विलायतमें जाकर भी हिन्दू विद्यार्थी अँगरेजोंके साथ संपूर्णरूपसे न हिल मिलकर उनसे अलग हिन्दू-आश्रममें रहें। वे कहते हैं, यह हिन्दूपनकी अनुचित जिद है। किन्तु हिन्दूपनके पक्षसे भी यह कहा जा सकता है कि हिन्दूका इंग्लैंडमें जाकर भी, निषिद्ध मांसको खाना उसके स्वास्थ्यके लिए अहितकर ही है, हितकर नहीं। और, जहाँ-तहाँ तिस-जिसके हाथसे अन्न-भोजन करना भी वैसा ही है-उससे