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ज्ञान और कर्म ।
व्याप्यत्वञ्च निराकृतं भगवतो यत्तीर्थयात्रादिना, क्षन्तव्यं जगदीश तद्विकलतादोषत्रयं मत्कृतम् ॥ अर्थात्, हे जगदीश, आपका कोई रूप नहीं है, फिर भी मैंने ध्यानमें आपके रूपका वर्णन किया है, हे संपूर्ण जीवोंके गुरु, आप वचनसे परे हैं, फिर भी मैंने स्तुति में आपकी महिमा गाकर आपकी अनिर्वचनीयता मिटाई है, हे भगवन्, आप सर्वव्यापी हैं, फिर भी मैंने तीर्थयात्रा आदि करके उसका निराकरण किया है। मुझ मूढ़ मतिने ये तीन दोष करके आपमें विकलताका आरोप किया है, सो आप मेरे इस अपराध को क्षमा कीजिए । अतएव हिन्दूधर्म पौत्तलिकता ( बुतपरस्ती ) या बहु-ईश्वरवाद के दोषसे दूषित नहीं है । उसे पौत्तलिक कहना, या बहुत ईश्वर माननेवाला कहना कदापि उचित नहीं है ।
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[ द्वितीय भाग
२ पूजा में पशु
बलिदानका निवारण |
देवताके उद्देशसे पशु बलिदानकी चाल इस जातिमें दो कारणोंसे प्रचलित हुई होगी ।
एक तो देवताकी प्रसन्नता के लिए अपनी उत्कृष्ट चीज, ममता छोड़कर, देनेकी इच्छा मनुष्यकी आदिम अवस्था के लिए स्वभावसिद्ध बात है । ईश्वर मनुष्यसे महान् हैं, किन्तु ( साकार अवस्था में ) उनकी प्रकृति हमारी प्रकृतिके समान है ( १ ) । अतएव हम अगर अपनी उत्कृष्ट वस्तु उनको अर्पण करें तो वे उससे अवश्य ही सन्तुष्ट होंगे - इसी भावसे भक्तिका प्रथम विकास हुआ होगा । इसी कारण भिन्न भिन्न देशों के धर्मशास्त्रों में नरबलि, अपने पुत्रकी बलि, और पशुबलिके अनेक वृत्तान्त पाये जाते हैं । जैसे—शुनः शेफका उपाख्यान ( २ ), दाता कर्णकी कथा, और इब्राहीमका उपाख्यान ( ३ ) | ईश्वर कुछ नहीं चाहते, उनके नियमका पालन ही परमभक्ति है, और उनकी प्रीतिके लिए बलिदान आवश्यक नहीं है— मनुष्य के मनमें यह भाव आध्यात्मिक उन्नति के साथ धीरे धीरे उदय होता है ।
( १ ) ऋग्वेद १ मं०, २४ सू०; ऐतरेय ब्राह्मण, सप्तम पञ्जिका; रामा- यण बालकाण्ड, अ० ६१-६२ देखो ।
( २ ) Genesis XXII देखो । ( ३ ) शब्दकल्पद्रुम में 'बलिः ' शब्द देखो ।