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ज्ञान और कर्म।
[द्वितीय भाग
लोग अपने धर्मको ही ठीक धर्म मानकर वैसा ही विश्वास करते हैं; और यह इच्छा करते हैं कि सभी उसी धर्मको माननेवाले हो जायँ। किन्तु सभीके एक धर्मावलम्बी होनेकी आशा करना असंगत है। मनुष्यजातिकी अनेक विषयों में एकता हुई है, और क्रमशः और भी अनेक विषयों में एकता होगी। किन्तु सभी विषयोंमें एकता होनेकी संभावना नहीं है। कारण, पूर्वसंस्कार, पूर्वशिक्षा, देशकी नैसर्गिक अवस्था और रीतिनीति, ये सब बातें भिन्न भिन्न व्यक्तियों और भिन्न भिन्न जातियोंकी इतनी विभिन्न हैं कि उनमें उन बातोंसे उत्पन्न पार्थक्य अवश्य ही रह जायगा । अतएव धर्मके सम्बन्धमें भी यद्यपि मोटी बातों (जैसे ईश्वर और परकालमें विश्वास ) को लेकर भिन्न भिन्न धर्मों में पार्थक्य नहीं रह सकता है, तथापि सूक्ष्म बातोंको लेकर परस्परका पार्थक्य अनिवार्य है। इस अवस्थामें सभी मनुष्योंको एक धर्ममें लानेकी चेष्टा निष्फल है। जब यह बात है कि पृथ्वीपर भिन्न भिन्न धर्म बने रहेंगे, और सभी लोग विश्वास करते हैं कि उन्हींका अपना धर्म ठीक है, तब किसीके धर्मसे द्वेष करना या उसके बारेमें ठट्ठा करना किसीका भी कर्तव्य नहीं है। अगर किसीकी रायमें कोई धर्म बिल्कुल ही भ्रान्तिमूलक
हो, या उसका कोई अनुष्ठान अमंगलकर अथवा वाहियात जान पड़े, और . उस उस विषयका संशोधन करनेकी उसे बड़ी ही इच्छा हो, तो धीर और
संयतभावसे श्रद्धाके साथ उन सब विषयोंकी आलोचना करनी चाहिए । इसके विपरीत करनेमें, अर्थात् केवल अपने धर्मकी प्रधानता स्थापित करनेके लिए, अथवा तर्कमें अन्यधर्मावलम्बीको परास्त करनेके इरादेसे आलोचना करनेमें, धर्मसंशोधनका उद्देश्य तो सफल ही न होगा, उलटे उस भिन्न धर्मावलम्बीके साथ वैमनस्य और विद्वेष बढ़ जायगा।
साधारण और साम्प्रदायिक धर्म सीखनेकी व्यवस्था करना मनुष्यके प्रति मनुष्यका धर्मनीतिसिद्ध दूसरा कर्तव्य कर्म है । यदि किसी देशमें किसी कारणसे (जैसे भारतमें राजा और प्रजाका धर्म भिन्न भिन्न होनेके कारण) राजा अपनी प्रजाकी धर्मशिक्षाका भार आप अपने ऊपर न ले, तो उस देशमें अपने लोगोंकी धर्मशिक्षाके लिए व्यवस्था करनेका भार प्रजाके ऊपर गुरुतर भावसे आपड़ता है। __ अगर लोगोंका हित करना मनुष्यका कर्तव्य कर्म हो, तो लोगोंकी धर्मशिक्षाका प्रबन्ध करना मनुष्यका आतिप्रधान कर्तव्य है । कारण, लोगोंको