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छठा अध्याय ] धर्मनीतिसिद्ध कर्म । हमारे सब तरहके नैराश्यको मिटाता है, और सत्कर्मके दुरूह होने पर भी हमको उसकी ओर प्रवृत्त करता है, तथा असत्कर्मके सहज और भारंभमें सुखकर ( आपातमधुर ) होने पर भी हमको उधरसे निवृत्त करता है। ईश्वरकी भक्ति मनुष्यके लिए मंगलकर होनेका और भी एक कारण है। ईश्वर पूर्ण, पवित्र और महान् हैं। उनकी भक्ति अर्थात् उनसे मिलनेकी इच्छा सर्वदा मनमें जगी रहनेसे जो पूर्ण, पवित्र और महान् है उसीमें मनुष्यका मन अनुरक्त रहता है, और जो अपूर्ण, अपवित्र और क्षुद्र है उसकी ओरसे चित्तकी वृत्ति फिरी रहती है। इन्हीं सब कारणोंसे ईश्वरके प्रति भक्ति मनुज्यका स्वभावसिद्ध कर्तव्य और मंगलकर कार्य है। यहीं तक यह विषय हमारे लिए बोधगम्य है। इसके सिवा, ईश्वरकी भक्ति करनेसे वे उससे प्रसन्न होते हैं या नहीं, और प्रसन्न होकर हमारा मंगल करते हैं कि नहीं, यह हम ठीक नहीं कह सकते । यदि हम लोगोंकी प्रकृति उनकी प्रकृतिके अनुरूप हो, तो ऐसा संभव भी हो सकता है। किन्तु यह बात भी निश्चितरूपसे कही नहीं जासकती कि उनकी प्रकृति हम ऐसे अपूर्ण जीवोंकी प्रकृतिके समान है। हाँ, केवल इतना कहा जा सकता है कि हमारा जो कुछ भला-बुरा ज्ञान है, वह उन्हींके अनन्त ज्ञानका अस्फुट आभास है, और इसी कारण वह सर्वथा अलीक ( मिथ्या) नहीं है।
नित्य उपासना। ईश्वरकी नित्य उपासना उनके प्रति मनुष्यका दूसरा विशेष कर्तव्य है। देहके अभावोंकी पूर्ति और विषयवासनाकी तृप्तिके लिए हम उसमें निरन्तर इतना लिप्त रहते हैं कि सहजमें आध्यात्मिक चिन्तामें मन लगानेका अवसर नहीं पाते । इसी कारण प्रतिदिन दिनके काम शुरू करने के पहले और समाप्त करनेके पीछे, कमसे कम दो बार, ईश्वरकी उपासनाके लिए कुछ समय नियत कर रखना आवश्यक है । ऐसा करनेसे, एक तो इच्छासे या अनिच्छासे दिनभरमें दो दफे आध्यात्मिक चिन्ताकी ओर मन जायगा, और क्रमशः अभ्यास हो जानेपर नित्य उपासनाकी ओर आपहीसे मन आकृष्ट होगा । ईश्वरकी भक्ति मनुष्यके लिए मंगलदायिनी होनेके जो जो कारण ऊपर कहे गये हैं, ठीक उन्हीं कारणोंसे नित्य ईश्वरकी उपासना भी हमारे लिए मंगलकर है। उपासनासे यह बोध उत्पन्न होता है कि हम ईश्वरके समीप हैं, अतएव