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छठा अध्याय । [धर्मनीतिसिद्ध कर्म ।
धर्मका मूलसूत्र-ईश्वर और परकालमें विश्वास धर्मका स्थूलमर्म क्या है, सो सभी जानते हैं, और यह भी सभी जानते हैं कि धर्मका मूलसूत्र ईश्वर और परकालमें विश्वास है । पृथ्वीकी प्रायःसभी सभ्य जातियोंका ही धर्म इसी विश्वासके ऊपर स्थापित है। ईश्वरको न मानकर केवल परकाल माननेसे वह विश्वास धर्म नहीं कहा जा सकता । जीवका वह परकाल, जड़की एक अवस्थाके बाद दूसरी अवस्थाके समान है, वह इसके सिवा और कुछ भी नहीं हो सकता । उधर परकालको न मानकर केवल ईश्वरको माननेसे भी वह विश्वास धर्म नहीं है। कारण, उस अवस्थाके ईश्वरके साथ जीवका सम्बन्ध, जीवके साथ जड़के सम्बन्धसे भिन्न नहीं कहा जा सकता । और, ईश्वर और परकाल दोनोंका अस्तित्व अस्वीकार करनेसे धर्म नहीं रह सकता ( यद्यपि नीति रह सकती है), जान पड़ता है, इसमें किसीको सन्देह नहीं होगा। ईश्वरमें विश्वास और परकालमें विश्वास, इन . दोनों विश्वासोंके मिलनको ही धर्म कहा जाता है । मैं अनन्तकालतक रहँगा, और अनन्त शक्तिके द्वारा सञ्चालित होऊँगा, यह विश्वास रहनेसे ही मनुष्य जड़-जगतको छोड़कर ऊपर उठ सकता है, और संसारके सुखदःखको तुच्छ समझ सकता है । उक्त विश्वासवाला मनुष्यही सुख और दःखमें समान भावसे कह सकता है कि जब अनन्तकाल मेरे सामने है, और अनन्त चैतन्यशक्ति मेरी सहायता करनेवाली है, तब यह थोड़े दिनोंका सुख-दुःख क्या है, कुछ भी नहीं है; अन्तको अनन्त सुख अवश्यही मुझे मिलेगा।