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पाँचवाँ अध्याय ]
राजनीतिसिद्ध कर्म।
अनिर्वाय है। ऐसे प्रबन्ध करना राजाका कर्तव्य है कि कोई एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदायके कष्टका कारण न हो, और दोनोंही संयत भावसे अपने अपने धर्मका पालन कर सकें।
जैसे कुछ विषय ऐसे हैं कि उनमें प्रजाके हितके लिए राजाका हस्तक्षेप करना कर्तव्य है, वैसेही अधिकांश विषयों में, प्रजाकी स्वाधीनताकी रक्षाके लिए, राजाका हस्तक्षेप न करनाही कर्तव्य है। प्रजावर्गक अपनी इच्छासे सुनियमके साथ चलना सीखनेसे ही राजाका और प्रजाका यथार्थ मङ्गल है। और, स्वाधीन भावसे चलने देनेसे ही प्रजा वह शिक्षा पा सकती है । अन्यान्य प्रकारकी शिक्षाओं में यही प्रजाकी सर्वोच्चशिक्षा है, और इस शिक्षाका उपदेश प्रजाको देनाही राजाका एक प्रधान कर्तव्य है।
प्रजाको अपना मतामत प्रकट करनेकी स्वाधीनता देना। ऐसा नियम होना चाहिए कि प्रजा अपने मतामतको स्वाधीन और निःशंक भावसे, लिखकर और कहकर, प्रकट करसके । इस बारे में राजाकी
ओरसे किसी तरहका निषेध रहना उचित नही है। हाँ, किसी प्रजाको राजाके या किसी प्रजाके अपवादकी घोषणा करने देना, या किसी निन्दित कार्यके लिए उत्साहित करने देना अनुचित है। मतलब यह कि स्वाधीनतामें सभीका अधिकार है, और इसी कारण स्वाधीनताके अपव्यवहारमें, अर्थात् स्वेच्छाचारमें, किसीका भी अधिकार नहीं है। स्वाधीनताके अपब्यवहारले एककी स्वाधीनता दूसरेकी स्वाधीनताको नष्ट करनेवाली बन जाती है।
'कर'-संस्थापन। शासन व्ययके निर्वाह के लिए राजाको अपनी प्रजासे कर लेनेका अधिकार है । राज-कर इस तरहसे स्थापित होना चाहिए कि उसकी मात्रा किसीको पीड़ा पहुँचानेवाली न हो, और कर वसूल करनेका ढंग भी किसीके लिए असुविधाजनक न होना चाहिए।
स्वदेशी शिल्पकी उन्नति करना । स्वदेश और विदेशकी पण्य-वस्तुओंके (बिक्रीकी चीजों) ऊपर राज-करके परिमाणकी न्यूनाधिकताके द्वारा स्वदेशके शिल्पकी उन्नति करना भी कर. संस्थापनका एक उद्देश्य गिना जाता है। यह उद्देश्य अच्छा है, किन्तु उसे