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ज्ञान और कर्म ।
[ द्वितीय भाग
नासंपन्न हुए, तो दोनों देश और दोनों जातियोंके स्वार्थका सामञ्जस्य करके काम करने की संभावना है । इस तरहके न्यायपरायण और साद्ववेचक राजा और प्रजा दृष्टान्त इतिहासमें दुर्लभ नहीं हैं ।
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ऊपर बहुत सी बातें कह डाली गई हैं । किन्तु जान पड़ता है, उनकी यथार्थताको बहुत लोग शायद स्वीकार नहीं करेंगे। शायद कोई कोई कहेंगे कि ये सब बातें संसारी गृहस्थोंकी नहीं है, उदासीन ऋषियोंकी हैं। शिक्षाकी जगह ये सब बातें समीचीन हो सकती हैं, किन्तु संसारमें चलनेवाले मनुष्य के लिए यह सोचना कि वह ऐसे उच्च आदर्शका होगा, भ्रांति है । यह संशय दूर करनेके लिए दो बातें याद रखना चाहिए । एक तो भारत में आर्य ऋषियोंने संयम और तपोबलसे यही शिक्षा दी है, जो ऊपर कही जाचुकी है। दूसरे, उसके बहुत दिनोंके बाद पाश्चात्य देशों में ईसामसीहने भी वही शिक्षा दी है । यद्यपि पाश्चात्य देशकी रीतिनीति और आचार-व्यवहारके साथ संघर्षण में आकर उस शिक्षाने वहाँ अभीतक अधिकमात्रामें सफलता नहीं प्राप्त की, किन्तु भारतकी रीतिनीति और आचार-व्यवहार उसी शिक्षाके उपयोगी होनेके कारण उस शिक्षाने यहाँ बहुत कुछ अपना फल दिखाया है । यही कारण है कि इतने सामाजिक और धार्मिक विप्लवोंके हो जाने पर भी आज अनेक हिन्दू अकातरभावसे स्वार्थहानि सहकर कह सकते हैं कि यह कितने दिनों के लिए है, जो हम इसके लिए इतने कातर या दुःखित हों ? " यद्यपि इसके साथही कुछ अवनति और अगौरव भी संमिलित है, किन्तु तो भी यही हिन्दूजाति की उन्नति और गौरव है । केवल आध्यात्मिक विषयपर दृष्टि रखकर जड़-जगत् के तत्त्वोंका अनुशीलन न करनेके कारण हिन्दुओंकी ऐहिक ( वैषयिक ) अवनति हुई है, और विज्ञानके अनुशीलनसे प्राप्त जड़शक्तिके प्रभावसे बली होरहे पाश्चात्य लोगोंसे उन्हें हारना पड़ा है। उस अवनति और पराजय के ऊपर लक्ष्य करके पाश्चात्य जातियाँ हम लोगों की अवहेला करती हैं । किन्तु उस तरहकी अवज्ञा या घृणा करना पाश्चात्य लोगोंको उचित नहीं ह । राजनीतिक स्वाधीनता पार्थिव संपत्ति है । वह रहे तो अच्छी बात है, किन्तु हिन्दुओं के पास वह स्वाधीनता बहुत दिनोंसे नहीं है । इस समय न्यायपरायण ब्रिटिश साम्राज्य के सुशासनमें रहनेके कारण हमें उस स्वाधीनताके
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