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ज्ञान और कर्म। [द्वितीय भाग २-राजतन्त्रके और राजा-प्रजासम्बन्धके भिन्न भिन्न प्रकार । ब्रिटन और भारतका सम्बन्ध ।
३-प्रजाके प्रति राजाका कर्तव्य । ४-राजाके प्रति प्रजाका कर्तव्य । ५-एक जातिके या राज्यके प्रति अन्य जातिका या राज्यका कर्तव्य । १ राजा-प्रजाके सम्बन्धकी उत्पत्ति, निवृत्ति और स्थिति।
राजा-प्रजा सम्बन्धकी उत्पत्ति आदिकी आलोचना करनेके लिए पहले यह जानना आवश्यक है कि वह सम्बन्ध कैसा है । सूक्ष्मभावसे देखनेमें वह सम्बन्ध अनेक रूप है। इस विषयका विशेष विवरण पीछे दिया जायगा। इस समय यह बताया जाता है कि स्थूलरूपसे राजा और प्रजाका संबन्ध किस प्रकारका है।
राजा-प्रजा-सम्बन्धका स्थूल लक्षण । मनुष्यकी प्रकृतिमें दो परस्पर विरोधी गुण हैं । मनुष्य अपनी इच्छाके अनुसार चलना चाहता है, और अन्य कोई अगर उस इच्छाका विरोधी होता है तो वह उसके साथ झगड़ा करता है, और फिर अन्य मनुष्यके साथ मिलकर रहना भी चाहता है। मगर आदिम असभ्य अवस्थामें वह मिलन अपना प्रभुत्व प्रकट करनेके वास्ते, और अन्यके द्वारा अपना काम निकालनेके लिए, होता है । इस प्रकार. एक जगह दल बाँधकर रहनेमें उस दलके लोगोंके बीच अनेक समय परस्पर विरोध उपस्थित होता है। कभी कभी अन्य देशके लोगोंके साथ भी विरोध हो जाता है। उन सब झगडोंको मिटानेके लिए, और बाहरी शत्रुओंके दमनके लिए, वही आदमी जो दलबद्ध व्यक्तियोंके बीच बलमें या बुद्धिमें श्रेष्ठ होता है, सारे दलपर कर्तृत्व करता है और दलका सञ्चालक होता है। दलके प्रयोजनीय कार्य चलानके लिए दलके ऊपर एक आदमी या कई आदामयोंका कर्तत्व करना ही राजा-प्रजाके सम्बन्धका मूल लक्षण है। जो एक आदमी या अनेक आदमी इस तरहका कर्तत्व करते हैं, उसको या उनको राजा या राजशक्ति कहते हैं। जिनके ऊपर वह कर्तृत्व किया जाता है वे प्रजा कहे जाते हैं।
राजा-प्रजा-सम्बन्धकी सृष्टिके विषयमें मतभेद । राजा और प्रजाके सम्बन्धकी उत्पत्ति कैसे हुई, इस बारेमें मतभेद हैं। एक मत यह है कि जिनके बीच यह सम्बन्ध है, उनकी इच्छाके अनुसार ही