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चौथा अध्याय ] सामाजिक नीतिसिद्ध कर्म। २९५ वैसा विस्तृत समाज किसी विशेष कार्यको नहीं कर सकता। केवल धर्मसम्बन्धी बड़े बड़े उत्सवोंमें या मेलों में (जैसे कुंभके मेले में ) वैसे विस्तृत समानके लोग एकत्र हो सकते हैं । साधारणतः एक गवके या निकटस्थ दो चार गाँवोंके रहनेवालोंको लेकर ही एक धर्मावलम्बः लोगोंके समाजका संगठन हुआ करता है। एक धर्मावलम्बी लोगोंके समग्र समाजका कोई बंधा हुआ नियम नहीं रहता, और रहना संभवपर भी नहीं है। हिन्दुसमाज, वष्णवसमाज, मुसलमानसमाज, क्रिश्चियनसमाज आदि इसी तरहके हैं।
४ धर्मानुशीलनसमाज और उसकी नीति । अनेक जगह लोग धर्मका अनुशीलन करनेके लिए समाजबद्ध होते हैं। वैसे समाज भी प्रायः एक धमावलम्बी लोगोंको ही लेकर संगठित हुआ करते हैं। इस तरहके समाजों और पूर्वोक्त प्रकारके समाजोंमें भेद यही है कि पूर्वोक्त प्रकारके समाज स्वतःप्रतिष्टित होते हैं, और इस तरहके समाजोंकी स्थापना मनुष्यकी इच्छासे होती है । भारतधर्म महानग्डन, बंगधर्ममण्डल, आदिब्राह्मसमाज, नवविधानसमाज, साधारण ब्राह्मसमाज, आर्यसमाज आदिसमाज इच्छाप्रतिष्ठित समाजके दृष्टान्त हैं। ___ ऊपर कहा गया है कि ऐसे समाज अकसर एक धर्मावलंबी लोगोंको लेकर ही गठित होते हैं। किन्तु विद्वेषभावयुक्त न होनेपर, भिन्न भिन्न धर्म माननेवाले भी एक जगह बैठकर धर्मकी चर्चा कर सकते हैं, वैसा होना असंभव नहीं है। पृथ्वीके प्रायः सभी प्रधान प्रधान धमाकी मूल बातोंमें अधिक विरोध नहीं है, और जिन बातोंमें विरोध है उनकी भी आलोचना शान्तभावसे की जा सकती है । और, उस आलोचनाके फलसे आलोचना करनेवाले धर्मको भले ही न बदल डालें, उनमें परस्पर श्रद्धा स्थापित हो सकती है। ___ इस तरहके समाजकी प्रधान और अत्यन्त आवश्यक नीति यह है कि कोई किसीके धर्मके ऊपर किसी तरहकी अश्रद्धा न दिखावे ।
इस जगह पर यह कह देना आवश्यक है कि धर्मके अनुशीलनका उद्देश्य दो तरहका हो सकता है-एक लौकिक, दूसरा पारलौकिक । पहले उद्देश्यके अनुसार धर्मानुशीलनका फल है, अपनेको धर्मके विषयमें ज्ञान मिलना और समाजमें सुश्रृंखला-स्थापन । दूसरे उद्देश्यसे धर्मके अनुशीलनका फल है अपने धर्मके अनुष्ठानमें दृढ़ता और परकालमें सद्गति होनेका उपाय करना।