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चौथा अध्याय ] सामाजिक नीतिसिद्ध कर्म!
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सर्वत्र विधिसिद्ध नहीं कहा जा सकता। रामका धन धनश्याम ले ले तो श्यामका हित होगा,, किन्तु इसीलिए श्यामका रामके धनको लेना विधिसिद्ध नहीं हो सकता। इसी लिए कहा गया है कि केवल न्यायसंगत हितसाधन ही कर्तव्य है । अब यह प्रश्न उठता है कि न्यायसंगत हित-साधन किसे कहते हैं ? इसका उत्तर बिल्कुल सहज नहीं है।
एक तो जो काम एक आदमीके लिए हितकर है, और अन्य किसीके लिए अहितकर नहीं है, वह अवश्य ही न्यायसंगत हितकर है और उस कामको करना न्यायसंगत हितसाधन कहा जा सकता है । अन्तर्जगत् या आध्यात्मिक जगत्के सभी हितकर काम न्यायसंगत कहे जा सकते हैं, क्योंकि उनके द्वारा किसीका भी अनिष्ट होनेकी संभावना नहीं है । एक आदमी अगर ज्ञानका या धर्मका अनुशीलन करे, तो उसमें उसका हित है और उसके कार्य तथा दृष्टान्तके द्वारा दूसरेका भी हित हो सकता है । और, उसके द्वारा किसीका अहित भी नहीं हो सकता । कारण, झान और धर्म असीम हैं, जिसे वह लेना चाहता है। उसके लेनेसे ज्ञान या धर्म चुक नहीं जायगा । जगत्के सब जीव उसे जितना लेना चाहेंगे उतना ही वह घटेगा नहीं, बल्कि बढ़ता ही जायगा । किन्तु वहिर्जगत्के या जड़जगत्के कायके सम्बन्धमें यह बात नहीं कही जा सकती। एक प्रसिद्ध कविने अवश्य कहा है कि पृथ्वी बहुत बड़ी है सही, किन्तु काम करनेवाले लोग उसे क्षुद्र ही समझते हैं, सागरपर्यन्त पृथ्वीका राज्य पाकर भी वे सन्तुष्ट नहीं हो सकते । साधारण रूपसे यह बात यों कही जा सकती है कि बहुत लोग थोड़ीसी क्षमता पा जाते ही इस पृथ्वीको तुच्छ समझने लगते हैं। इस पृथ्वीकी भोग्यवस्तुओंका परिमाण बहुत होनेपर भी उससे लोगोंकी आकांक्षा निवृत्त नहीं होती। फिर एक वस्तुको अनेक लोग चाहेंगे तो उसमें झगड़ा होना अनिवार्य है इसी कारण बुद्धिमानोंने जन-धन-सम्पत्ति आदि पार्थिव वस्तुओंकी कामनासे निवृत्ति, और ज्ञान तथा धर्म, इन अपार्थिव पदार्थों में प्रवृतिको ही प्रकृत सुखका उपाय बतलाया है। किन्तु कुछ पार्थिव पदार्थ, जैसे खानेके लिए अन्न, पहनने के लिए वस्त्र, रहनेके लिए स्थान इत्यादि, मनुष्यकी देहयुक्त अवस्थामें अत्यन्त प्रयोजनीय हैं, इनके न मिलनेसे देहकी रक्षा नहीं होती, और जिस जाति या समाजमें इन वस्तुओं के अभावकी यथेष्ट पूर्ति नहीं होती,