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तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म ।
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ranniwwnamani
हके सम्बन्धमें पुत्र और कन्याको अपनी अपनी इच्छाके अनुसार चलने देना ही कर्तव्य है। किन्तु पहले ही कहा चुका है कि इस विषयमें उनका आप ही निर्वाचन करना अनेक कारणोंसे भ्रान्तिपूर्ण हो सकता है। अतएव इस बारे में पिता-माताका अलग रहना उचित नहीं हो सकता।
पुत्रका ब्याह उसकी कमसिनीमें कर देनेसे पिताके लिए बहूके यथायोग्य लालन-पालन और शिक्षा देनेकी एक नई जिम्मेदारी पैदा हो जाती है।
इस सम्बन्धमें केवल एक बात कह देना ही यथेष्ट होगा । वह यह कि पुत्रवधूको अपनी कन्यासे भी अधिक स्नेह और यत्नसे रखना चाहिए । क्योंकि, उसे उसके मा-बापके स्नेह और यत्नसे अलग करके नई जगह लाते हैं । अतएव अपने मा-बापसे वह जो स्नेह और यत्न पाती थी उससे अधिक स्नेह और यत्न अगर सास-ससुरसे न पावेगी तो उसके उस अभावकी पूर्ति नहीं हो सकेगी।
पिता-माताका और एक कर्तव्य है, पुत्रकन्याके भरण-पोषणके लिए कुछ धनका संचय करना । जब इसका कुछ निश्चय नहीं है कि पुत्र जल्दी या देरमें अपने भरण-पोषणके लायक धन पैदा कर सकेगा, तब पुत्र के लिए कुछ धनसंचय करना भी पिताकी एक कर्तव्य है। धनसंचयके और भी अनेक उद्देश्य हैं। इतना धन सभीको जमा करना चाहिए कि कभी समय पड़ने पर उसले अपना काम निकल सके, और दूसरेका उपकार किया जासके ! किसे कितना धन जमा करते रहना चाहिए, इसका निर्णय हरएककी आमदनी और आवश्यक खर्चके ऊपर है; किन्तु कुछ जमा करते रहना सभीके लिए उचित है ।
और, जो धन जमा करना हो उसे खर्च करनेके पहले ही निकालकर अलग रख देना चाहिए। यह न सोचना चाहिए कि खर्च करनेके बाद जो बचेगा वह जमा कर दंगे। ___ पुत्र कन्या जब सयाने ( बालिग ) हो जाय तब उन्हें संपूर्ण स्वाधीनता दे देनी चाहिए। लेकिन किसी बातमें उनका आचरण अगर भ्रमपूर्ण देख पड़े, तो मित्रभावसे उसका संशोधन करनेके लिए उन्हें सदुपदेश देना उचित है।
(३) पिता-माताके सम्बन्धमें कर्तव्यता । पिता-माताकी भक्ति, थोड़ी अवस्थामें उनकी इच्छाके अनुसार चलना और सयाने होने पर भी उनकी बात पर श्रद्धा करना, पुन-कन्याका कर्तव्य है।
ज्ञा०-१८