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तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म।
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रहेगा, तबतक उसका कार्य भी अवश्य ही होगा, और उसका कारण दूर कर सकनेसे ही उसका कार्य भी बंद हो जायगा। और, जहाँ वह कारण दुर करना असाध्य हो, वहाँ उसके कार्यको अनिवार्य समझकर उसे सहना ही सच्चे आर्यका कर्तव्य है। इस ज्ञानके द्वारा, जहाँ साध्य है वहाँ अनिष्टक ! निवारण हो सकता है, और जहाँ अनिष्टनिवारण असाध्य है वहाँ भी, वृथा चेष्टाको एक प्रकारसे छोड़कर मनकी शान्ति पाई जा सकती है।
उपर जो कहा गया है वह दूसरी तरहसे संक्षेपमें यों कहा जा सकता है कि पुत्रकन्याको जगत्के सब लोगोंस मित्रता स्थापित करने का उपदेश देना पिता-माताका कर्तव्य है।
६-जीवनका उच्च उद्देश्य वैषयिक अर्थात् ऐहिक उन्नति नहीं, आध्यास्मिक उन्नति है । और, जीवनका चरम लक्ष्य यह नहीं है कि सकाम कर्मके द्वारा उस धनको जमा करना, जो केवल कुछ समयतक भोगा जा सकेगा। बल्कि निष्कामकर्मके द्वारा अनन्तकालस्थायी सुख प्राप्त करना ही जीवनका चरम लक्ष्य है। धीरे धीरे यह बात पुत्र कन्याके हृदयमें जमा देना भी पितामाताका कर्तव्य है। पूर्वोक्त प्रकारका ज्ञान एक बार पैदा हो जाने पर फिर कोई न तो नीचकर्ममें प्रवृत्त होगा, और न जीवनयात्रामें ही लक्ष्यभ्रष्ट होगा। ___ ७-हररोज संध्याके समय अपने दैनिक कामोंके दोष-गुणका हिसाब करना सीखना सभीके लिए उचित है। वैसा करते रहनेसे अपने दोषोंके संशोधन करनेके लिए नित्य मौका मिलता है, और कोई दोषकी आदत बढ़ने नहीं पाती।
धर्मशिक्षा। धर्मशिक्षाके सम्बन्ध मतभेद और तर्कके लिए जगह है। कोई कोई कहते हैं, "जब धर्नके संबंधमें इतना मतभेद है, तो फिर बालक-त्रालिकाओंको थोड़ी अवस्थामें किसी भी धर्मको शिक्षा देना उचित नहीं है; धर्मके सम्बन्धमें उनके मनको अशिक्षित और संस्कार-शून्य रखना ही मुनासिब होगा। वे जब सयाने होंगे, और उनकी बुद्धि पक्की होगी, तब जिस धर्मको वे सत्य समझेगे उसीको ग्रहण करेंगे।" किन्तु उनका यह कथन संगत नहीं जान पड़ना । पिता-माता जिस धर्मको मानते हैं, उसी धर्मको अगर बालकबालिका भी थोड़ी अवस्थामें ग्रहण करें, तो उसमें कोई बाधा या बुराई नहीं