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पहला अध्याय।
ज्ञाता।
जो जानता है अर्थात् जिसे ज्ञान होता है वही ज्ञाता है। साक्षात्-सम्बन्धमें मैं अपनेको ही ज्ञाता जानता हूँ, और परोक्षमें अपनी तरह अन्य जीवको भी अनुमानके द्वारा ज्ञाता जानता हूँ।
मैं यह अन्तर्दृष्टिके द्वारा देखता हूँ कि मैं अपने ज्ञानका ज्ञाता हूँ। और जब देखता हूँ कि बहिर्जगत्का कोई विषय देख कर मैं जैसा काम करता हूं ठीक वैसा ही काम मेरे ऐसे और जीव भी करते हैं, अर्थात् मैं जैसे किसी भयानक वस्तुको देखता हूँ तो उसे त्याग करता हूँ, या किसी प्रीतिदायक वस्तुको देखता हूँ तो उसकी ओर आकृष्ट होता हूँ, वैसे ही मेरे ऐसे अन्य जीव भी उन उन वस्तुओंको देख कर उसी तरहका आचरण करते हैं, तब संगतरूपसे मैं अनुमान कर सकता हूँ कि उन उन वस्तुओंको देख कर मुझमें जैसा ज्ञान उत्पन्न होता है, वैसा ही ज्ञान मेरे तुल्य अन्य जीवों में भी उत्पन्न होता है। और मैं जैसे अपने ज्ञानका ज्ञाता हूँ वैसे ही वे भी अपने ज्ञानके ज्ञाता हैं।
अब दो प्रश्न उठते हैं। मैं कौन हूँ, मेरा स्वरूप क्या है ? और मेरी तरहके अन्यान्य जीव भी कौन हैं और उनका स्वरूप क्या है? __ इन दोनों प्रश्नोंका उत्तर पहले प्रश्नके ऊपर ही निर्भर है। क्योंकि मैं जैसा हूँ, अन्य सब ज्ञाता भी संभवतः वैसे ही हैं। इसलिए इसीका अनुसंधान करना यथेष्ट होगा कि प्रथम प्रश्नका उत्तर क्या है। ___ "मैं कौन है? मेरा स्वरूप क्या है ? " यह प्रश्न अभी अनावश्यक जान पड़ सकता है, क्योंकि मैं मुझे साक्षात् सम्बन्धसे जानता हूँ, आत्मज्ञानके