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तीसरा अध्याय ]
पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म ।
स्त्रीको शिक्षा देना ।
स्वामीका सबसे बड़ा कर्तव्य है स्त्रीको शिक्षा देना । कारण, स्त्रीकी सुशिक्षा और सच्चरित्रके ऊपर स्वामीका, खुद स्त्रीका, उनकी सन्तानका और सारे परिवारका सुख और स्वच्छन्दता निर्भर है ।
शरीरार्द्ध स्मृता जाया पुण्यापुण्यफले समा ।
( दायभाग 991919 )
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अर्थात् पत्नी पतिका आधा शरीर है। शास्त्रमें लिखा है कि पतिके पुण्यपापका आधा फल उसे भी मिलता है । और, पत्नी के पाप-पुण्यका आधा फल पतिको मिलता है
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यह बृहस्पतिका वचन केवल स्त्रीका स्तुतिवाद नहीं है, यह अमोघ सत्य है । स्त्रीके पाप-पुण्यका फल स्वामीको और स्वामीके पाप-पुण्यका फल स्त्रीको भोग करना होता है । यह साधारण ज्ञानकी बात है, और इसे प्रायः सभी लोग जानते हैं । अतएव स्वामी यदि खुद सुखी होना चाहे, तो स्त्रीको
शिक्षा देना उसका आवश्यक कर्तव्य है । वह अगर स्त्रीकी भलाई चाहता है तो स्त्रीको अच्छी शिक्षा देना उसका कर्तव्य है । स्त्री अगर सुशिक्षित और सच्चरित्र नहीं हुई तो स्वामी अपर्याप्त वस्त्र - अलंकार देकर और निरन्तर आदर - प्यार करके उसे सुखी नहीं कर सकेगा । इसके सिवा सन्तानकी शिक्षा के लिए भी स्त्रीके शिक्षित होनेकी आवश्यकता है । कोई कोई समझ सकते हैं कि सन्तानको शिक्षा पिता देगा, उसके लिए माताकी शिक्षाका क्या प्रयोजन है ? मगर ऐसा समझना भ्रम हैं । हमारा यथार्थ शिक्षक, कमसे कम चरित्रगठनके विषयमें, माता ही है । हमारी शिक्षा, पाठशाला में जानेके बहुत पहले, माताकी ही गोद में शुरू होती है । माताका हरएक वाक्य और हरएक मुखभंगी हमारे बचपन के कोमल हृदयमें सदाके लिए नये नये भाव अंकित कर देती है । और ज्ञात या अज्ञातभावसे माताकी प्रकृतिके अनुसार ही हमारी प्रकृतिका गठन होता है। इसके सिवा स्वामी के समग्र परिवारका सुख स्त्रीके चरित्रके ऊपर निर्भर है । वह पहले घरकी बहू और फिर कुछ इिनके बाद घरकी मालकिन या पुरखिन होती है । उसीकी गृह कर्म-निपुता और सबसे मिलकर चलनेके कौशलसे गृहस्थका कल्याण होता है ।