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तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म। __ पूर्व प्रचलित कोलीन्य (कुलीनता) प्रथा अब क्रमशः उठी जाती है, और अब लोग इसी बात पर विशेष लक्ष्य रखते हैं कि लड़का अच्छे घरानेका और अच्छे गुणोंसे युक्त है कि नहीं। अतएव कोलीन्य प्रथाके बारेमें विशेष कुछ कहनेका प्रयोजन नहीं है।
बहुविवाह ठीक नहीं। पात्र या पात्रीके-पत्नी या पतिके जीते रहते उसका फिर विवाह होना निन्दित है। स्त्रीके लिए तो एक समयमें एकसे अधिक पति प्रायः सभी देशोंमें निषिद्ध है। केवल सम्प्रदाय विशेषके बीच दाक्षिणात्य और तिब्बतमें इसका व्यतिक्रम देखा जाता है । पुरुषके लिए एक समय में कई पत्नी होना ईसाई-धर्ममें निषिद्ध है । हिन्दुओं और मुसलमानोंके शास्त्र में वह निपिद्ध नहीं है। पर न्यायसे अनुचित हैं, लोकव्यवहारसे निन्दित है, और कार्यमें क्रमशः उठा जाता है। और, सुखका विषय यह है कि बहुविवाहके अनुचित होनेके सम्बन्धमें कोई मतभेद नहीं है। अतएव इस गतप्राय या मृतप्राय प्रथाके विषयमें और अधिक कुछ न कहकर इसे चुपचाप उठ जाने देनेसे ही अच्छा होगा।
विवाहका समारोह (धूमधाम )। विवाहसम्बन्धकी उत्पत्तिके विषयमें अन्तिम बात विवाहका समारोह है। विवाह मानव-जीवनका एक प्रधान संस्कार है। इसके द्वारा हम अपने सुखमें सुखी और दुःखमें दुखी होनेवाला जीवनका चिरसंगी मुक आदमी पाते हैं। इससे स्वार्थपरताका संयम और परार्थपरताकी शिक्षाका प्रथम आरंभ होता है। यही दाम्पत्य-प्रेम, अपत्य-स्नेह और पितृ-मात-भक्तिकी जड़ है। अतब विवाहके दिनको मानवजीवनका एक अति पवित्र और आनन्दका दिन समझना चाहिए, और उस दिनका माहात्म्य समुचित रूपसे सबके हृदयंगम करनेके लिए विवाहका उत्सव यथासंभव समारोहके साथ संपन्न होना सर्वथा वांछनीय है। किन्तु उस समारोहमें असंगत बहुत आडम्बर और अनथक व्यय-बाहुल्य अनुचित है। वरकी पोशाक, गहने और सवारी सुन्दर और सुखकर होनी चाहिए। किन्तु वरको पुरानी सौ जनोंकी पहनी किरायेकी राजसी पोशाक पहना कर, हिलडुल रहे और त्रासजनक डोले पर बिटा कर, एक तरहका स्वाँग सा बनाकर ले जाना कभी बांछनीय नहीं !