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ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग
वाल्यविवाहके प्रतिकूल युक्ति। जो लोग बाल्यविवाहके, अर्थात् कमसिनीमें विवाहके, विरोधी हैं, वे अपने मतका समर्थन करनेके लिए निम्नलिखित तीन बातें कहते हैं
(१) विवाहसम्बन्ध जैसा गुरुतर है और उसका फलाफल जैसा दीर्घकालतक रहनेवाला है, उसे सोचकर देखते बुद्धि पक्की होनेके पहले किसीको भी उस तरहके सम्बन्ध-बन्धनमें बँधने देना उचित नहीं जान पड़ता।
(२) विवाहका एक प्रधान उद्देश्य है-उपयुक्त सन्तान उत्पन्न करना । अतएव थोड़ी अवस्थामें, अर्थात् देह और बुद्धिके पकनेके पहले, ब्याह करना उचित नहीं है । कारण, माता-पिताका शरीर और मन अगर पूर्णताको प्राप्त न होगा तो सन्तानकी भी काया सबल और मन प्रबल नहीं हो सकेगा।
(२) संसारमें जीवन-संग्राम ऐसा कठिन होता आरहा है कि थोड़ी अवस्थामें ब्याह करके स्त्री-पुत्रका बोझ सिरपर लाद लेनेसे, लोग अपनी उन्नतिके लिए यथोचित चेष्टा नहीं कर सकते ।
ये तीनों युक्तियाँ इतनी संगत और प्रबल हैं कि सुनते ही जान पड़ता है, इनका कुछ उत्तर नहीं है । और, जिन देशोंमें थोड़ी अवस्थामें ब्याह होनेकी रीति प्रचलित नहीं है उन सब देशोंकी ऐहिक उन्नत अवस्थाके साथ बाल्यविवाह-प्रथाके अनुगामी भारतकी ऐहिक हीन अवस्थाका मिलान करनेसे जान पड़ता है कि पूर्वोक्त युक्तियोंके अनुकूल प्रचुर प्रमाण मिल गया। बस, उक्त युक्तियोंके प्रतिकूल अगर कोई विज्ञ प्रवीण पुरुष भी कुछ कहना चाहता है तो वह अत्यन्त भ्रान्त जान पड़ता है, और उसकी बात एकदम सुननेके अयोग्य प्रतीत होती है। इसका एक दृष्टान्त देता हूँ। कुछ समय पहले एक साल कलकत्ता-विश्वविद्यालयकी प्रवेशिका परीक्षाके लिए बंगला-साहित्यकी जो पाठ्यपुस्तक बनाई गई उसमें प्रसिद्ध मननशील सुपण्डित और सुलेखक स्वर्गीय भूदेव मुखोपाध्याय महाशयके "पारिवारिक प्रबन्ध ग्रन्थसे बाल्यविवाह' शीर्षक प्रबन्ध या उसका कुछ अंश लेकर रख दिया गया। उसमें कोई भी ऐसी बात न थी जो पढ़नेके अयोग्य हो । बँगला जाननेवाले पाठक उसे खुद पढ़कर इस बातकी जाँच कर सकते हैं। किन्तु उसके लिए इतनी आपत्ति उपस्थित की गई कि संकलित पाठ्य पुस्तकसे वह अंश निकाल देना पड़ा।