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ज्ञान और कर्म ।
[ द्वितीय भाग
शायद उस झूठ बोलनेको कर्तव्य बतलावेगा । किन्तु उसमें देनदारके सर्वस्वकी रक्षा होनेपर भी साथ ही लेनदारकी भारी क्षति होती है, और मिथ्यावादीका मंगल देखकर अनेक लोग झूठ बोलनेके लिए उत्साहित होंगे, जिससे भविष्यत् में और भी अनेक लोगोंकी क्षति हो सकती है, अतएव उत्कृष्ट हितवादी जो है वह ऐसे स्थलमें झूठ बोलनेको अकर्तव्य समझेगा । जहाँ पर एक झूठ बात कहनेसे अनेकोंका, यहाँतक कि एक संप्रदाय या समाजका हित होता हो, और साथ ही किसीका स्पष्ट अहित न हो, वहाँ पर हितवाद उस कार्यको कर्तव्य कहेगा या अकर्तव्य, सो कुछ ठीक ठीक कहा नहीं जा सकता । कर्तव्य कहना गोया मिथ्याको प्रश्रय देना है, और उससे भावी अनिष्ट हो सकता है--इस आशंकासे शायद हितवाद उसे अकर्तव्य ही कहेगा | सुखवाद और हितवाद, दोनों ही कर्तव्य प्रवृत्तिकी प्रेरणा से उत्पन्न हैं ।
प्रवृत्तिवाद |
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अतएव इन दोनों मतोंको एकसाथ प्रवृत्तिवाद नाम दिया जा सकता है। निवृत्तिवाद |
पक्षान्तरमें, अनेक लोग कहते हैं, प्रवृत्ति हमें कुपथगामी करती है और निवृत्ति सन्मार्ग में चलाती है । अतएव प्रवृत्ति-प्रेरित कर्म अकर्तव्य हैं, त्तिमूलक कर्म ही कर्तव्य हैं ।
निवृ
भोग, विलासिता और कामनासे सम्बन्ध रखनेवाले कर्म अकर्तव्य हैं; वैराग्य, कठोरता और निष्कामभावसे युक्त कर्म ही कर्तव्य हैं । इस मतको निवृत्तिवाद कह सकते हैं ।
सामञ्जस्यवाद ।
हितवाद जो है वह कर्ताके अपने हितपर कम और पराये हितपर अधिक दृष्टि रखता है, और निवृत्तिवाद जो है वह प्रवृत्तिको घटाता है । किन्तु अपने हितपर भी यथोचित दृष्टि रखनी चाहिए, और प्रवृतिको एकदम दबा देना या मिटा देना अनुचित है । फिर बहुत लोग यह सोच कर कि अपने हित और पराये हित, प्रवृत्ति और निवृति, दोनोंका सामञ्जस्य करके कार्य करना आवश्यक है. कहते हैं— स्वार्थ और परार्थ तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति, दोनोंका