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दूसरा अध्याय। कर्तव्यताका लक्षण ।
कर्तव्यताके लक्षणकी आलोचनाका प्रयोजन । ___ इस कर्मक्षेत्रमें आकर हमारा पहला कर्तव्य यही ठीक करना है कि क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है। कर्तव्याकर्तव्यका निश्चय बहुत जगह पर सहज है, बहुत जगह पर सहज नहीं है, और कहीं कहीं पर तो बहुत ही कठिन है । अगर हरएक आदमीको हरएक बातमें अपने कार्यकी कर्तव्यता अकर्तव्यताका निश्चय करना होता तो जीवन-निर्वाह अथवा संसार-यात्रा बहुत ही जटिल और दुरूह होती। मगर सभी सभ्य देशोंके पण्डितोंने कर्तव्यअकर्तव्यके बारेमें खूब सोच-विचार कर, धर्म-शास्त्र और नीतिशास्त्र लिखकर, सर्व साधारणके लिए राह बहुत साफ और सहज कर दी है। उन शास्त्रोंकी बातें स्मरण रखनेसे और उन महापुरुषोंके दिखाये हुए मार्ग पर चलनेसे प्रायः लोग अपने कर्तव्यका पालन करने में समर्थ हो सकते हैं। किन्तु जिन जिन स्थलोंमें शास्त्रोंके बीच मतभेद है, वहाँ हमें अपनी विवेचना पर भरोसा करना पड़ता है। फिर कर्मक्षेत्र इतना विशाल और विचित्र है, और उसके सब संकीर्ण संकटस्थल इतने दुर्गम और नित्य-नूतन हैं कि वहाँ केवल पथप्रदर्शकके बताने पर ही निर्भर करनेसे पथिकका काम नहीं चलता; पथिकमें खुद अपनी राह पहचानलेनेकी क्षमताका रहना आवश्यक है । अतएव केवल नीतिविषयक सिद्धान्त जाने रहना ही यथेष्ट न होगा। प्रयोजनके माफिक किसी बातके अनुकूल-प्रतिकूल युक्ति-तर्क विचारकर अपने निजके सिद्धान्त पर पहुँचनके योग्य होना हमारा कर्तव्य है। इसीलिए " कर्तव्यताका लक्षण क्या है ?"