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ज्ञान और कर्म ।
[ द्वितीय भाग
भोगता है, और जब शुभ फल पाने और अशुभ फल न पानेकी चेष्टा मनुव्यके लिए स्वभावसिद्ध है, तब यह कभी संभव नहीं कि मनुष्य अस्वतन्त्रतावादी होनेसे ही निश्चेष्ट हो जायगा ।
ऊपर कहे गये अस्वतन्त्रतावादमें देव और पुरुषकार का सामंजस्य है, अर्थात् वह कर्ताके पहले के कर्मफल और वर्तमान चेष्टा, दोनोंकी कार्यकारिताको स्वीकार करता है । यह अदृष्टवाद कहकर दूषित नहीं हो
सकता ।
अदृष्ट और
पुरुषकार 1
अदृष्टवाद कहनेसे अगर यह समझा जाय कि मैं किसी वांछित कार्य के लिए चाहे जितनी चेष्टा क्यों न करूँ, अदृष्ट अर्थात् मेरी न जानी हुई कोई अलंघ्य अनिवार्य शक्ति उस चेष्टाको विफल कर देगी, तो वह अदृष्टवाद माना नहीं जा सकता; क्योंकि वह कार्य-कारण-सम्बन्ध विषयक नियमके विरुद्ध है । किन्तु यदि अदृष्टवादका अर्थ यह हो कि कार्यकारणपरंपरा के क्रमसे जो कुछ होनेको है, और जो पूर्ण ज्ञानमय ब्रह्मके ज्ञानगोचर था कि ऐसा होगा, उसीकी ओर मेरी चेष्टा जायगी — दूसरी ओर नहीं जायगी, तो वह अदृष्टवाद माने बिना नहीं रहा जा सकता । कारण, वह कार्य-कारणसम्बन्धविषयक अलंघ्य नियमका फल है ।
पूर्वोक्त अस्वतन्त्रतावाद माननेसे, जब देखा जाता है कि कर्ताकी इच्छा स्वाधीन नहीं है, वह उसके पूर्व-स्वभाव, पूर्व- शिक्षा और पारिपारिवक अवस्थाके द्वारा संचालित है, तब वर्तमानमें केवल वैसी ही नीतिकी शिक्षा देना यथेष्ट न होगा जिससे कर्ताकी इच्छा सत्पथमें जानेके लिए प्रबल हो, बल्कि उन सब उपायोंका अवलम्बन आवश्यक है, जिनसे भावी कर्म करनेवालोंका पूर्व-स्वभाव, पूर्व- शिक्षा और पारिपार्श्विक अवस्था उनकी इच्छाको सत्पथगामिनी बनानेके लायक हो । इसी लिए बालकको अगर भविष्य में अच्छा देखनेकी आशा की जाय, तो यह आवश्यक है कि उसके माता-पिता सुशिक्षित और सच्चारित्र हों, वह बाल्य कालसे ही सुशिक्षा पावे, उसे सात्त्विक आहार-विहार ( आमोद-प्रमोद - क्रीड़ा ) के साथ सत्संग में अच्छे परिवार
* महाभारत, अनुशासन पर्व, छठा अध्याय देखो ।