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शान और कर्म।
[द्वितीय भाग
पहले काकी चर्चा उठती है। और, कर्ताका जिक्र आनेपर यह प्रश्न उठता है कि वह स्वतन्त्र है, या अवस्था उसे जिस तरह चलाती है उसी तरह चलने अर्थात् कार्य करनेके लिए वह वाध्य है ? और, प्रासंगिक भावसे यह प्रश्न भी उठता है कि कार्यकारणसम्बन्ध किस तरहका है ? और इन दोनों प्रश्नोंकी आलोचनाके बाद ही ये दो प्रश्न उठते हैं कि कर्मके प्रधान भागका अर्थात् कर्तव्य कार्यका लक्षण क्या है ? और कर्तव्यताका लक्षण क्या है ? इसके बाद कई एक खास तौरके कर्मोंकी आलोचना वांछनीय है। वे कर्म ये हैं-पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म, सामाजिक नीतिसिद्ध कर्म, राजनीतिसिद्ध कर्म और धर्मनीतिसिद्ध कर्म । और सबके अन्तमें 'कर्मका उद्देश्य क्या है ' इस प्रश्नका संक्षिप्त उत्तर देना आवश्यक है। अतएव १-कर्ताकी स्वतन्त्रता है कि नहीं, और कार्य-कारण-सम्बन्ध किस तरहका है, २-कर्तव्यताका लक्षण, ३-पारिवारक नीतिसिद्ध कर्म, ४-सामाजिक नीतिसिद्धः कर्म, ५-राजनीतिसिद्ध कर्म, ६-धर्मनीतिसिद्ध कर्म और ७-कर्मका उद्देश्य ये सात विषय क्रमसे अलग अलग अध्यायोंमें. इस दूसरे भागमें. वर्णन किये जायेंगे।