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ज्ञान और कर्म 1
जा सकते हैं, किन्तु इसमें सन्देह है कि वे स्वतःप्रवृत्त होकर मनुष्यकी तरह चलना सीखते हैं कि नहीं । अतएव अत्यन्त प्रयोजन हुए विना, और देखरेखका विशेष सुयोग हुए विना, विद्यार्थियोंका छात्रनिवासमें रहना वाञ्छनीय नहीं जान पड़ता। कोई कोई समझते हैं कि छात्रनिवासमें शिक्षक और विद्याथका सर्वदा समावेश हो सकता है, और इसी लिए विद्यार्थियोंका छात्रनिवासमें रहना, प्राचीन भारत में गुरुगृहके निवासकी तरह, सुफल देनेवाला होता है । किन्तु यह बात ठीक नहीं है । कारण, पहले तो छात्रनिवास गुरुगृह नहीं हैं, वहीं गुरु सपरिवार नहीं रहते, और अपने या गुरुके स्वजनोंके बीचमें रहकर विद्यार्थी जिस तरह पालित और शिक्षित हो सकता है, उस तरह छात्रनिसमें नहीं हो सकता । दूसरे, प्राचीन समय में शिष्य जो होते थे वे गुरुको भक्तिका उपहार देते और उनसे स्नेहका प्रतिदान पाते थे । भक्ति और स्नेह, केवल ये ही दोनों देने-लेनेकी चीजें थीं, और इन दोनोंका विनिमय ही एक अपूर्व शिक्षा देता था । वर्त्तमान समय में विद्यार्थी जो है वह छात्रनिवासमें कुछ धन देकर उसीके माफिक रहनेको स्थान और खाने-पीनेकी सामग्री आदि पाता है, जितना धन देता है उसीके माफिक स्थान और खाद्यसामग्री प्राप्त कर लेता है, या प्राप्त करनेकी चेष्टा करता है। यह धन देने और स्थान तथा खाद्यपदार्थ देने-लेने का मामला किसी तरह उस प्राचीन कालके भक्ति और स्नेहके देने लेने के साथ तुलनीय नहीं हो सकता ।
प्रथम भाग
( ३ ) जैसे अनेक शिक्षकोंके एकत्र संमिलनसे एक विद्यालयकी स्थापना होती है, वैसे ही अनेक विद्यालयोंके एकत्र मिलनसे एक विश्वविद्यालयकी स्थापना होती है। प्रसिद्ध पण्डितोंके द्वारा शिक्षादान, योग्य व्यक्तियोंके द्वारा विद्यार्थियों की परीक्षा लेना और उसके फलके अनुसार उपाधि और सम्मान देना, इन कार्योंके द्वारा विश्वविद्यालय शिक्षाकी पूर्णरूपसे उन्नति कर सकता है । किन्तु विश्वविद्यालयका कार्य बहुविध और जटिल नियमोंसे पूर्ण होना उचित नहीं ।
(2) पुस्तकें शिक्षाकी एक अत्यन्त प्रयोजनीय सामग्री है ।
जब जिस वस्तु विषयकी शिक्षा दी जाती है तब वह वस्तु विद्यार्थीके सामने रखी जा सकनेसे ही अच्छा होता है । प्रकृति जो है वह इसी प्रणासे पहले बच्चों को शिक्षा देती है । किन्तु ब्रह्म से लेकर तृणपर्यन्त सभी