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छठा अध्याय ] ज्ञान-लाभके उपाय ।
१४१. शिक्षाके सामान कई तरहके हैं, जैसे (1) शिक्षक, (२) स्कूल, (३) कालेज, (४) पुस्तक, (५) पुस्तकालय, (६) यन्त्र और यन्त्रालय, और (७) परीक्षा । इन सातों से हरएकके सम्बन्धमें दो-चार बातें कही जायेंगी।
(१) शिक्षक ही शिक्षाका प्रथम और प्रधान उपकरण है । मैं आशा करता हूँ, शिक्षाका सामान कहनेसे शिक्षकोंकी मर्यादाकी कोई हानि न होगी। __उपयुक्त शिक्षकके कुछ विशेष लक्षण रहना आवश्यक है। शारीरिक गुणोंमें स्पष्ट और उच्च स्वर, सूक्ष्म दृष्टि और तीव्र श्रवणशक्तिका प्रयोजन है। बहुतसे छात्रोंको एक जगह एक साथ शिक्षा देनेके लिए इन गुणोंका होना बहुत जरूरी है-इनके बिना काम नहीं चल सकता। मानसिक और आध्यात्मिक गुणोंमें पहले तो धीर बुद्धिका प्रयोजन है । बुद्धि सूक्ष्म होकर भी अगर चञ्चल हुई तो शिक्षाका कार्य अच्छी तरह सम्पन्न नहीं होता। एक ही समय अनेक विद्यार्थियोंको समझाना होगा, अनेक लड़कोंके संशय दूर करने होंगे। अतएव शिक्षकको अपनी बुद्धि धीर स्थिर रखनेकी आवश्यकता है।
दूसरे शिक्षकके लिए इसकी बड़ी जरूरत है कि उसने अनेक शास्त्र देखे हों और वह किसी एक शास्त्रमें पूरा पण्डित हो । अनेक शास्त्र देखनेका प्रयोजन यह है कि सब शास्त्रोंका परस्पर सम्बन्ध है और एक शास्त्रकी बातका उदाहरण अन्यान्य शास्त्रों में दिया रहता है। इस कारण अनेक शास्त्र देखे हुए रहने पर शिक्षक जिस शास्त्रका पण्डित है उसकी विशद व्याख्यामें विशेष निपुणता दिखा सकता है। किसी एक शास्त्रमें प्रगाढ पण्डित्यकी आवश्यकता यह है कि उसके रहे बिना यह नहीं जाना सकता कि प्रगाढ़ पाण्डित्य क्या है, और उसे जाने बिना उसके ऊपर अपना वैसा अनुराग नहीं उत्पन्न होता, और शिक्षार्थीके मनमें भी उसके प्रति अनुराग उत्पन्न करना संभव नहीं है। और एक कारणसे भी प्रगाढ़ पाण्डित्यकी आवश्यकता है। यद्यपि पहलेके बुद्धिमानों और विद्वानोंका उपार्जित ज्ञान, जिसे हमने उत्तराधिकारसूत्रसे पाया है, बहुत अधिक है, किन्तु ज्ञानका अन्त नहीं है, अतएव नये नये तत्त्वोंका आविष्कार करके ज्ञानकी सीमा फैलाना या बढ़ाना शिक्षकका एक प्रधान कर्तव्य है, और किसी खास शास्त्र में प्रगाढ़ पाण्डित्य हुए बिना उस शास्त्रके.