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ज्ञान और कर्म। [प्रथम भाग यहाँपर प्रयोजन भरके ज्ञान और सर्वाङ्गीन उत्कर्षके सम्बन्धमें दो-एक बातें कहना आवश्यक है। ___ कई एक विषयोंके सम्बन्धमें कुछ ज्ञान सभीके लिए प्रयोजनीय है। जैसे मोटे तौरपर हमारे शरीरकी भीतरी रचना और कार्य कैसे हैं, और किस नियमसे चलनेसे देहके स्वास्थ्यकी रक्षा और पुष्टिकी वृद्धि होती है, हमारी सब मानसिक क्रियाएँ मोटे तौरपर किस नियमसे चलती हैं, हम कहाँसे आये हैं और अन्तको कहाँ जायँगे, इत्यादि विषयोंका कुछ कुछ ज्ञान होना सभीके लिए आवश्यक है। फिर अनेक विषय ऐसे हैं जिनका समग्र होना सबके लिए आवश्यक नहीं । वे विषय ऐसे हैं कि जिसने जो पेशा स्वीकार कर रक्खा है उसे उसी विषयकी जानकारी हासिल करनकी जरूरत है। जैसे वैद्यकका विषय वैद्यके लिए, आईन कानूनका विषय वकील-बैरिस्टरके लिए और कृषिशास्त्र किसानके लिए अवश्य जाननकी चीज है।
सर्वाङ्गीन उत्कर्षसाधनके सम्बन्धमें एक कठिन प्रश्न उठ सकता है। एक ओरकी संपूर्ण उन्नतिकी चेष्टा करनेमें दूसरी ओरकी संपूर्ण उन्नति बहुधा असाध्य हो जाती है। जैसे, देहकी संपूर्ण उन्नतिका यत्न करो, तो मनकी संपूर्ण उन्नतिके लिए जो मानसिक श्रम आवश्यक है उसके लिए समय नहीं रहता, और वैसे ही मानसिक उन्नतिके लिए श्रम करो, तो देहकी संपूर्ण उन्नतिमें उसी कारणसे विघ्न पड़ता है। देह और मनकी उन्नति जब इस प्रकार परस्परविरोधी है तब क्या कर्तव्य है ? इस प्रश्नका केवल एक ही उत्तर संभवपर है। ऐसे विरोधकी जगह वांछित उत्कर्षकी प्रधानताके तारतम्य और शिक्षा के प्रयोजन, इन दोनों बातों पर दृष्टि रखकर प्रत्येक स्थलमें कार्य करना होगा। जैसे बाल्यकालमें देहको पुष्ट बनाना अत्यन्त आवश्यक है, और उधर ज्ञानोपार्जन और मानसिक उत्कर्षसाधनकी शक्ति थोड़ी होती है; अतएव उस समय दैहिक उत्कर्षसाधनके ऊपर विशेष दृष्टि रख कर शिक्षा देनी चाहिए। उसके क्रमशः कुछ कुछ करनेसे भी काम चल सकता है । और यह याद रखना चाहिए कि जिस शिक्षार्थीका शरीर दुर्बल है उसकी देहके बारेमें सबलदेह शिक्षार्थीकी अपेक्षा अधिक यत्न करनेका प्रयोजन है। असल बात यह है कि जैसे नियमसे चलनेमें शिक्षाका समग्रफल अधिक हो वही नियम स्वीकार करना चाहिए