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९०६ ज्ञान और कर्म ।
[प्रथम भाग
-rrrrrrrइसके सिवा कुछ सोचकर देखनेसे समझा जा सकता है कि दैवदुर्विपाक आदिसे हमें जितना दुःख मिलता है, हमारी दुर्नीति उसकी अपेक्षा कम दुःख नहीं देती। पहले तो हमारी अपनी दुर्नीतिसे अपनेको ही अनेक प्रकारके या सब तरहके दुःख मिलते हैं। अतिभोजन आदि असंयत इन्द्रियसेवाके कारण हमें तरह तरहके रोगोंकी यंत्रणा भोग करनी पड़ती है और हम अक्सर अकालमें ही कालका कौर बन जाते हैं । दुराकांक्षा, अतिलोभ, ईर्ष्या, द्वेष आदि दुष्प्रवृत्तियोंसे हम निरन्तर तीव्र मानसिक वेदना सहते हैं। दूसरे, पराई दुर्नीतिके कारण हम अपमान, वञ्चना, चोरी आदिके द्वारा धननाश, शत्रुके हाथसे आघात और अपमृत्यु आदि अनेक प्रकारके गुरुतर क्लेश भोग करते हैं। राष्ट्रविप्लव (गदर), युद्ध, और उसके साथ होनेवाले सब अमंगल भी मनुष्यकी दुर्नीतिके ही फल हैं। इस लिए इन्द्रियसंयम और दुष्प्रवृत्तिके दमनकी शिक्षाका अभ्यास न करनेसे, केवल विज्ञान-शिक्षाके द्वारा भोगके पदार्थ और रोगकी दवा आदि अधिक मात्रामें तैयार कर सकने पर भी, मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता।
ऊपर विद्याका जो श्रेणी-विभाग किया गया है, उसमें आत्मविज्ञान या अन्तर्जगत्-विषयक विद्याका ही पहले उल्लेख किया गया है। किन्तु उसकी अच्छीतरह शिक्षा सबसे पहले किसीतरह संभव नहीं। देहयुक्त आत्माका आत्मज्ञान बहिर्जगत्के ज्ञानलाभके साथ साथ क्रमशः विकासको प्राप्त होता है, और उसके विकासके लिए तरह तरहके कर्म करनेका भी प्रयोजन होता है। इसी कारण हमारे शास्त्रों में कर्मकाण्डके बाद ज्ञानकाण्डमें अधिकार निश्चित हुआ है। और, इसी कारण, जान पड़ता है, श्रीस देशके दार्शनिक पण्डित अरिस्टाटल और उनके शिष्योंने आत्मविज्ञानको 'उत्तर विज्ञान' (१) नामसे अभिहित किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि न्याय आदि दर्शनशास्त्र और मनोविज्ञान आत्मविज्ञानके ही अंश हैं। हाँ, इस बातके लिए मतभेद हो सकता है कि गणितविद्या आत्म-विज्ञानके अन्तर्गत है या नहीं। किन्तु गणित जो है वह काल-स्थान-मूलक विद्या है; और काल व स्थान अन्तर्जगत् और बहिर्जगत् दोनोंका विषय होने पर भी शुद्ध गणितके
( १ ) Metaphysics शब्दका मौलिक अर्थ यही है ।