________________
जैन-प्रन्थ-संग्रह।
१५१
भविक-सरोज-विकासि, निंद्यतमहर रविसे हो।
जति आवक भाचार कथन को, तुम्हीं बड़े हो । फूलसुवास अनेकसों (हो), पूर्जी मदन प्रहार । सीम: ॥४॥
ॐ ह्रीं विद्यमान विंशतितीर्थंकरभ्यः कामवाणविध्वंसनाय पुरुष्पं निर्व०॥
कामनाग विषधाम- नाशको गरुड़ कहे हो।
छुपा महादवज्वाल, तासुको मेघ लहे हो । नेधज बहु घृत मिष्टसों (हो), पूजों भूख विडार । सीम०॥५॥
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः नुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्व०॥
उद्यम होन न देत, सर्व जगमाहिं भरयो है।
मोह महातम घोर, नाश परकाश फरयौ है । 'पूजों दीपप्रकाशसों (हो) ज्ञानज्योतिकरतार । सीमं० ॥६॥
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरभ्य। मोहान्धकारविनाशनायदोपं निर्व.॥
कर्म आठ सय काठ,--भार विस्तार निहारा ।
ध्यान अगनिकर प्रगंट, सरव कीनों निरवारा। धूप अनूपम खेवते (हो), दुख जलै निरधार । सीम०॥ ७ ॥
ॐ हीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्योऽष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्व० ॥