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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
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गुरू आचारज उवझाय साध । तन नगन रतनत्रयनिधि अगाध । संसारदेहवैराग धार । निरवांछि तपै शिवपद निहार. ॥६॥
गुण छत्तिस पचिस आठ दोस । भव तारन तरन जिहाजईस । गुरु की महिमा घरनी न जाय । गुरुनाम जपों मनव चनकाय ॥७॥
सोरठा-कीजे शक्ति प्रमान, शक्ति विना सरधा धरै 'धानत ' सरधावान , अजर अमरपद भौगवै॥ ८ ॥ ॐ हीं देवशानगुरुभ्यो महाव्य निर्वपामीति स्वाहा ।
------- EFTEyer~~-.. 'वीस तीर्थकर पूजा भाषा । दीप पढ़ाई मेरु पन, अब तीर्थ करवीस तिन लयकी पूजा करू, मनवचतन धरि शीस ॥ १ ॐ ह्रीं विद्यमान विंशतितीर्थ कग! अत्र अवतरत अवतरत । संघोपट ।
ॐ हों विद्यमान विशतितीर्थकरा.! अन तिष्ठत तिष्ठत. 331 ॐ हों विद्यमान विंशतितीर्थकरा ! अन मम सन्निहिता भवत भवत । वषट् ।
इन्द्रफणींद्रनरेंद्र बंय, पद निर्मलधारी। शोभनीक संसार, सार गुण हैं अविकारी।