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बड़ा जैन-ग्रन्थ-संग्रह |
सच्चे देव का स्वरूप । जो सर्वज्ञ शास्त्र का स्वामी, जिसमें नहीं दोष का लेश । वही आप्त है वही आप्त हैं, वही आप्त है तीर्थ जिनेश ॥ जिसके भीतर इन बातों का, समावेश नहि हो सकता । नहीं आप्त वह हो सकता है, सत्य देव नहिं हो सकता ॥५॥ भूख प्यास बीमारि बुढ़ापा, जन्म मरण भय राग द्वेष | गर्व मोह चिन्ता मद अचरज, निद्रा अरति खेद औ स्वेद ॥ दोष अठारह ये माने हैं, हों ये जिनमें जरा नहीं । आप्त वही है देव वही है, नाथ वही है और नहीं ॥६॥ सर्वोत्तम पद पर जो स्थित हो, परम ज्योति हो, हो निर्मल। वीतराग हो महाकृती हो, हो सर्वज्ञ सदा निश्चल || आदि रहित हो अन्त रहित हो, मध्य रहित हो महिमावान । सब जीवों का होय हितैषी, हितोपदेशी वही सुजान ॥ ७॥ बिना रागके बिना स्वार्थके, सत्यमार्ग वे बतलाते । सुन सुन जिनको सत्पुरुषोंके, हृदय प्रफुल्लित हो जाते ॥ उस्तादोंके कर स्पर्शसे जब मृदङ्ग ध्वनि करता है । नहीं किसी से कुछ चहता है, रसिकों के मन हरता है ॥८॥ शास्त्र का लक्षण |
जो जीवोंका हितकारी हो, जिसका हो न कभी खंडन जो न प्रमाणों से विरुद्ध हो, करता होय कुपथ-खंडन ॥ वस्तुरूपको भलीभांतिसे, बतलाता हो जो शुचितर । कहा आप्तका शास्त्र वही है, शास्त्र वही है सुन्दरतर ॥ ॥ तपस्वी या गुरु का लक्षण ।
विषय छोड़कर निरारम्भ हो, नहीं परिग्रह रक्खें पास | ज्ञान ध्यान तप में रत होकर, सव प्रकार की छोड़ें आस ॥
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