________________
जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
૨૨
-
तुम पद पंकज पूजते विघ्न रोग टर जाय । शत्रु मित्रता को धरै विष निर विपना थाय ॥ER चक्री खग धर इंद्र पर मिले आपत आप अनुक्रम कर शिव एद लहै नेम सकल हन पाप ॥१०॥ तुम विन मैं व्याकुल भया जैसे जल घिन मीन जन्म जरा मेरो हरो कारा मोह स्वाधीन ॥११॥ पतित बहुन पावन किये गिनती कौन करे । अंजन से तारे कुची सु जय जय जय जिनदेव ॥१२॥ थकी नाव भत्रि दधि विर्षे तुम प्रभु पार करय । खेवरिया नुम दो प्रभु सो जय जय २ जिनदव ॥१३॥ राग सहित जग में रुले मिले सरागो देव । वीतराग भैटो सबै मेटी राग कुटेव ॥१४॥ कित निगोद कित नारकी कित तिर्यंच अज्ञान। आज धन्य मानुष भयो पायो जिनवर थान ॥१५॥ तुमको पूजें सुरपनि अहिपति नरपति देव । धन्य भाग मेरो भयो. करन लगो तुम सेव ॥१६॥ अशरण के तुम शरण हो निराधार आधार । में इयत भवसिंगु में खेव लगायो पार ॥१७॥ इंद्रादिकगण गति थकी तम विन्तो भगवान । विनती आप निहारि के फीजे आप समान ॥१८॥ तुमरी नेक सुद्रष्ट से जग उतरत है पार। हाहा इयौ जात हो नेक निहार निकार ॥१६॥ जो मैं फाहा हूं और सों तो न मिट उर झार। मेरी तो मोसे बनी , तातें करत पुकार ॥२०॥ बंदों पाचों एरंच शुरू सुतुरु बदन जास। रिघ लाल रंग पूरन. पर कप २६३
. , विध