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. बारह भावना।
'तव्य
- संवर भाजा ..... . तोड़ डाल भ्रम जाल, मोह से विरत हो जा, कर न प्रमाद कभी छोड़ दे कषाय तू । दूर हो विचार बात करने से विषयों की,माथे पड़ी सारी सह मत उकताय तू ॥ मन रोक वाणी रोक रोक सव इन्द्रियों को, गिरिधर सत्य मानकर ये उपाय तू | षधंगे न कर्म नये निरपेक्ष होके संदा, कर्तव्य पालन कर खूब ज्यों सुहाय तू ॥८॥ .. . .. निजरा मावना
... . - इससे न बात करो इसे यहांन आने दो,इस को सतामो मारो क्योंकि दोषवान है । कपटी कलेकी कर पापी अपराधी नीच, चोर डाकू, गंठकटा कुकर्मों की खान है। रखके विचार 'ऐसे लोग जो संता। तोभी, सहले विपत्तियों को माने ऋणदान है। गिरिधर धर्म पाले किसी से न वांधे बैर, तपसे नसावे कर्म वही ज्ञानवान है ........... .........लोक भावना। .. .
बांकी कर कोन्हियों को जरा पांव दूरे रख, आदमी को खड़ाकर गिरिधर ध्यान धर । चतुर्दश राजू लोक ऐसा ही है नराकार, उसमें भरे हैं द्रव्य छहों सभी स्थान परं । एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रिन्द्रिय. चतुरिन्द्रिय त्यों, पञ्चेन्द्रिय संश्यसंझी पर्याप्तापर्याप्त कर । भरे ही पड़े हैं जीव पर सब चेतन हैं स्वानुभव करें त्यों त्यों पावें मोक्ष धाम. वर ॥१०॥...:
बोधिदुर्लभ भावना :...: एक एक श्वास में अठारह अठारह यार, मर मर धरें देह जंगजीव-जानलो । बड़ी ही कठिनता से निकले निगादसे तो, अगणित बार भ्रमे भव भव मानलो । दुर्लभ मनुष्य भव