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बड़ा जैन ग्रन्थ-संग्रह |
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सके तनकी जहां दुर्लभताई ।
नित्य निगेोद अनादि रहो ज्यों क्रम से निकला वह तें त्यों इतर निगोद रहो चिरछाई ॥
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सूक्ष्म बादर नाम भयो जबही यह भाँति घरी पर्यायी । चारहि०॥७॥
औ जय हो पृथ्वी जल तेज भये। पुनि होय वनस्पतिकाई । देह अघात धरी जब सूक्षम घातत वादर वीरघताई ॥
एक उदै प्रत्येक भयो सह धारण एक निगोंद बसाई | चार हि०॥८॥ इन्द्रिय एक रही चिरमें कर लब्धि उन्दै स्वय उपशमनाई ।
वे त्रय चार धरी जब इन्द्रिय देह उदै विकलत्रय आई ॥ पंचन आदि कधी पर्यन्त धरे इन इन्द्रियके त्रस काई । वारहि० ॥ काय घरी पशुकी बहु वार भई जल जन्तुनकी पर्याई ।
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जो थल मांहि अकाश रहो चिर होय पखेरू पंख लगाई ॥ मैं जितनी पर्याय धरीं तिनके बरणें कहुं पार न पाई । बारहिं०॥१०॥ नरक मकार लिया अवतार परौ दुख भार न कोई सहाई । जो तिलसे सुख काज किये अघते लब नरकनमें सुधि आई ॥ तातियके तनकी पुतली हमरे हियरा करि लाल भिराई । बारहिं० ॥ ११॥ लाल प्रभा सु महीं जह हैं अरु शर्कर रेत उन्हार बताई । पक प्रभा जु घुआवत है तमसी सुप्रभा सु महातम ताई ॥
जाजन लाख जुपाड़ल पिएड तहां इकही छिनमें गल जाई ॥ चारहि०१२ | जे अघ घात महा दुखदायक मैं विषयारसके फल पाई । काटत है जबहीं निरदय तबही सरिता महि देत वहाई ॥
"देव देव कुमार जहाँ बिच पूरव वैर बताबत जाई ॥ वारहि० ॥१३॥ ज्यों नरदेह मिली क्रम सों करि गर्भ कुवास महादुखदाई ।
जे नव मास कलेश सहे मलमूत्र अहार महाजय ताई ॥
1: जे दुख देखि जर्बेनिकसो पुनि रोवत बालपने दुखदाई | बार हिं० ॥ १४॥ योवन में तन रोग भयो कबहुं विरहानल व्याकुलताई ।
मान विषै रस भोग चहों उन्मत्त भयो सुख मानत ताही ।
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