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बड़ा जैन-प्रन्थ-संग्रह।
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इन्हें रात दिन पक्ष मास या, वर्ष आदि तक देना त्याग। कहलाता है 'नियम' और 'यम, आजीवन इनका परित्याग७१
भागोपभोगपरिमाणके अतिचार ।। विषय विषों का आदर करना, भुक विषय को करना याद । वर्तमान के विपयों में भी, रचे पचे रहना अविषाद ।। आगामी विषयों में रखना, तृष्णा या लालसा अपार । विन भोगे विषयों का अनुभव करना,ये भोगातिचार ||७२।।
पांचवां परिच्छेद।
शिज्ञावत-देशावकाशिका पहला है देशावकाशि पुनि, सामायिक प्रोषध उपवास-1 वैयावृत्य और ये चारों, शिक्षाक्त हैं सुख-आवास ।। . दिग्नत का लम्बा चौड़ा स्थल, कालभेद से कम करना। प्रतिदिन व्रत देशाविकाश लो, गृही जनों का सुखझरना||३|| अमुक गेह तक अमुक गली तक, अमुक गांव तक जाऊंगा। अमुक खेत से अमुक नदी से, आगे पग न बढ़ाऊंगा। एक वर्ष छहमास मास या, पखवाड़ा या दिन दो चार। सीमाकाल भेदले श्रावक, इस व्रत को लेते हैं धार ॥४॥ स्थूल सूक्ष्म पांचों पापों का, हो जाने से पूरा त्याग । सीमा के बाहर सघ. जाते, इस वृत से सुमहावत आप ॥ हैं अतिचार पांच इस वृत के, मैंगवाना प्रेषण करना। रूप दिखाय इशारा करना, चीज फैंकना, ध्वनि करना ॥७५||
सामायिक । पूर्ण रीति से पञ्च पाप का, परित्याग करना सज्ञान । मर्यादा के भीतर बाहर, अमुक समय धर समता ध्यान ॥ है यह सामायिक शिक्षावत, अणुवतों का उपकारक । विधि से अनलस सावधान हो, बना सदा इसके धारक ॥७६!