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जैन-ग्रन्थ-संग्रह ।
अवगाहन सु अगुरुलधु, अव्यावाध है।
'इन वसु गुण युत सिद्ध, जजों यह साध है ॥१॥ ॐ ह्रीं अष्टगुण विशिष्टाय सिद्धपरमेष्ठिनेऽधं नि० ॥
....... .. श्रीआचार्य पूजा. . . . .
दोहा-आचारज भाचारयुत, निज पर भेद लखन्त ।
- तिनके गुण षट् तीस हैं, सो जामो इमि सन्त ॥१॥ . . . . . वेसरी.छंद । . : . . उत्तम क्षमा धरे मन माहीं । मारदव धरम मान तिहिं नाहीं॥ आरजव सरल स्वभाव सु जानो । झूठ न कहें सत्य परमानो। निर्मल चित्त शौच गुण धारी । संयम गुण धारे सुखकारी॥ द्वादश विधि तप तपत महंता । त्याग करें मन वच तन संता॥ तज ममत्व आकिंचन पालें । ब्रह्मचर्य धर कर्मन टालें । ये दश धरम धरे गुण भारी । आचारज पूजों सुखकारी ॥४॥ ....ॐ ह्रीं दुशलाक्षणिकधर्मधारकाचार्य परमेष्टिने अर्धं नि० ॥
".. 'वेसरी छन्द । . . “अब द्वादश तप सुनिये भाई, अनशन ऊनादर सुखदाई ॥ व्रतपरिसंख्या रस नहिं चाहें। विविक्तशैय्यासन अवगाहें ॥५॥ कायकलेश सहें दुख भारी, ये छह तप बारह गुण धारी।। प्रायश्चित लेवें गुरु:शास्त्रे विनयभाव निशिदिन चित्त राखे॥६॥
"दोहा। वैयावृत्य स्वाध्यायकर, कायोत्सर्ग सुजान । ध्यान करें निज रूप को, ये बारह तप मान ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं द्वादशविधितायुक्ताय आचार्यपरमेष्टिने अब
नि०॥