________________
२२०
जन-ग्रन्थ-संग्रह |
उर्जयन्तं गिरिनाम तस, कहो जगति विख्यात । गिरिनारी सासे कहत, देखत मन हर्षात ॥ ३ ॥
अल्लि |
गिरि सुन्नत सुभगाकार है । पञ्चकूट उतंग सुधार है || वन मनोहर शिला सुहावनी । लखत सुंदर मन कोभावनी ||४|| और कूट अनेक वने तहां । सिद्ध थान सुअति सुन्दर जहाँ । देखि भविजन मन हर्पावते । सकल जन चन्दन को आवते ||५||
त्रिभंगी छन्द |
तहां नेम कुमारा, व्रत तप धारा, कर्म विदारा, शिव पाई । मुनि को बहत्तर, सात शतक घर, ता गिरि ऊपर सुखदाई ॥ भये शिवपुरवासी, गुण के राशी, विधिथित नोशी, ऋद्धिधरा । तिनके गुण गाऊ, पूज रचाऊ, मन हर्पाऊ, सिद्धि करा ॥
दोहा |
ऐसा क्षेत्र महान, तिहि पूजत मन बच काय । स्थापत त्रय वारकर, विष्ट तिष्ट इत आय || ॐ हीं श्री गिरिनारि सिद्धिक्षेत्रेभ्यो | अत्र अत्रवतरः सम्वौषटाह्वाननम् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ॥ अत्र ममसन्नहिता भव भव वषट् सन्धीकरण ।
अथाष्टकं ।
माधवी वा किरीट छन्द ।
लेकर नीरसुक्षीरसमान महा सुखदान सुप्रासुक भाई । त्र्य धारजजों वरणा हेरेना मम जन्मजरा दुःखदाई ॥