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________________ ५३ आत्मा एक महान प्रवासी णमा कर शरीर नाम-कर्म अनुसार उसका देह-रचना में रूपान्तर करना गरीर-पर्याप्ति है । सात धातुओ के रूप में परिणमित हुए पुद्गल में से इन्द्रिय-योग्य पुद्गल को ग्रहण करके गति, जाति, आदि नामकर्म के अनुसार देह की इन्द्रिय-रचना करने में उसका रूपान्तर करना इन्द्रियपर्याप्ति है। सात धातुओ के रूप में परिणमित हुए, पुद्गल मे से उद्भव पाती हुई भक्ति के द्वारा श्वासोच्छवास योग्य पुद्गल को ग्रहण करके उसे श्वासोच्छवास के रूप में परिणमा कर श्वासोच्छवास की क्रिया सम्पादित करना श्वासोच्छवास-पांति है। सात धातुओ के रूप में परिणमाये हुए पुद्गल में से उद्भव पाती हुई गक्ति के द्वारा मनोवर्गणा के पुद्गगलो को ग्रहण करके उनको वचन-रूप परिणमा कर वचन-रूप से लेना-रखना भापा-पर्याप्ति है। सात धातुओ के रूप में परिणमाये हुए पुद्गल में से, उद्भव पाती हुई गक्ति के द्वारा मनोवर्गणा के पुद्गलो को ग्रहण करके उनको मन रूप परिणमा कर, उसका अवलम्बन लेकर, विसर्जन करने की शक्ति द्वारा विचार, चिन्तन, मनन आदि मनोव्यापार में उतारना मनःपर्याप्ति है। गरीर की रचना पहले होती है और आत्मा उसमें बाद में प्रवेश करती है, ऐसा मानना मुनासिब नहीं है, क्योंकि इस प्रकार तो मशीन से निकली हुई टिकियो की तरह पुद्गलों के बने हुए सब शरीर एक-से होने चाहिए , लेकिन आप देखते हैं कि उनमें कितना ज्यादा फर्क होता है। कोई यह कहे कि पृथक-पृथक वीर्य और रज के कारण (उत्पादक पदार्थों के कारण) ऐसा होता है, तो ऐसा कहना युक्त नहीं है , कारण कि एक ही माता-पिता से उत्पन्न होनेवाली सन्तानो के शरीर भी
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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