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________________ सम्यक् चारित्र ७१३ है । अब मैं नरक, तिर्येच आदि गति के दुःख सकुल ससार समुद्र मे से निवृत्त होना चाहता हूँ । मुझे आज्ञा दीजिये । मै सर्वविरति चारित्र की दीक्षा ग्रहण करूँगा । 'हे माता-पिता ! किंपाकफल के समान निरन्तर कडवा फल देनेवाले और एकान्त दुःख की परम्परा से सने हुए भोग मैने खूब भोग लिये हैं । यह शरीर भी अशुचि से उत्पन्न हुआ है, इसलिए अपवित्र है, अनेक कष्टो का कारण और क्षणभंगुर है; इसलिए इसमें आसक्ति नहीं रही । अहो ! सारा ससार दुःखमय है और उसमे रहनेवाले प्राणी जन्म-जरा-रोग-मरण के दुःखो से पीड़ित हैं ! 'हे माता-पिता ! घर जल रहा हो, उस समय उसका मालिक असार वस्तुओं को छोड़कर बहुमूल्य वस्तुओं को निकाल लेता है। यह लोक भी जरा और मरण से जल रहा है । आप मुझे आज्ञा दें तो उसके तुच्छ काम भोगो को छोड़कर, केवल अपने आत्मा को उचार लूँ ।" 3 1 तरुण पुत्र की यह बात सुनकर माता-पिता ने कहा - "हे पुत्र | साधुपन बड़ा कठिन है । साधुपुरुष को जीवनपर्यंत प्राणीमात्र पर समभाव रखना पड़ता है, शत्रु और मित्र को समान दृष्टि से देखना होता है । और, फिर चलते, फिरते, खाते, पीते, यानी प्रत्येक क्रिया मे होनेवाली सूक्ष्म हिंसा से विरमना पड़ता है । यह स्थिति सचमुच बड़ी दुर्लभ है । "साधु जीवनपर्यन्त भूले- चूके भी असत्य नहीं बोलता । सतत सावधान रहकर हितकारी सत्य बोलना बहुत कठिन है । " " साधु दाँत कुरेदने का तिनका भी खुशी से दिये गये बिना नहीं ले सकता । उसी प्रकार दोषरहित भिक्षा प्राप्त करना भी अत्यन्त कठिन है । (( 'कामभोगों के रस को जाननेवाले के लिए मैथुन से नितान्त विरक्त रहना कोई सामान्य बात नहीं है । साधुपुरुष धन, धान्य, दास, आदि किसी वस्तु का परिग्रह नहीं रखता । इस तरह सर्व वस्तुओं का त्याग कर ममतारहित होना भी अति दुष्कर है।"
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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