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सम्यक् चारित्र
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क्रिया मे पटकाय के जीवो की विराधना होती हो उसका सकल्प करना आरभ है; उसके लिए साधन इकट्ठा करना समारंभ है; और प्रयोग करना आरभ है। इसका सार यह है कि, साधु अपने मन को किसी भी हिंसक प्रवृत्ति की ओर जाने न दे।
दूसरी गुप्ति वचन गुप्ति है। उसका अर्थ यह है कि, साधु ऐसा कोई वचन प्रयोग न करे कि, जिससे संरभ, समारभ या आरभ को उत्तेजन मिले। ___ अन्तिम गुप्ति कायगुप्ति है। उसका अर्थ यह है कि, खडे रहने मे, सोने मे, गड्ढा पार करने तथा पॉचो इन्द्रियों का व्यापार करते समय काया को सावध योग में प्रवर्तित न होने दे ।
दस प्रकार का यति धर्म साधु को सर्वविरति-चारित्र के पालन तथा विकास के लिए दस प्रकार के श्रमणधर्म या यतिधर्म का पालन करना होता है। वह इस प्रकार है।
(१) क्षाति-क्षमा रखना-क्रोध नहीं करना। (२) मार्दव-मृदुता रखना-अभिमान नहीं करना । , (३) आर्जव-सरलता रखना छलकपट नहीं करना । (४) मुक्ति-सन्तोप रखना-लोभ नहीं करना ।
(५) तप-यथाशक्ति तपश्चर्या करना । विशेषतः इच्छाओ का निरोध करना।
(६) सयम- इन्द्रियों पर पूरा-पूरा काबू रखना । (७) सत्य-वस्तु का यथास्थित कथन करना-असत्य नहीं कहना ।
(८) शौच-हृदय पवित्र रखना-सब जीवों के साथ अनुकूल व्यवहार करना।
(९) अकिंचनता-अपने लिए कुछ नहीं रखना-फक्कड़ रहना ।