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________________ ६६२ आत्मतत्व-विचार (२६) हमेशा अदुराग्रही बनना-अपनी बात खोटी जानने पर भी _न छोड़ना दुराग्रह है। (२७) विशेषज्ञ होना-अर्थात् हर वस्तु के गुण-दोष बराबर समझना। (२८) अतिथि, साधु और दीनजनों की योग्यतानुसार सेवा करना । (२९) परस्पर बाधा न आये, इस रीति से धर्म, अर्थ और काम इन तीन वर्गों का सेवन करना । (३०) देश और काल से विरुद्ध परिचर्या का त्याग करना । (३१) बलाबल विचार कर काम करना। (३२) लोकाचार ध्यान में रखकर वर्तना। ( ३३ ) परोपकार करने में कुशल होना । जो आदमी अपनी शक्ति के अनुसार किसी पर छोटा या बड़ा उपकार करता है, उसका जीवन धन्य गिना जाता है । शेष लोग कौओ और कुत्तो की तरह अपना पेट भरा करते हैं। एक लोक कवि कहता है कर माँ पहरे कड़ा, पण कर पर कर मेले नहीं अने जाणवा मडां, साचु सोरठियो भणे । (३४) लज्जावान होना। (३५) मुखाकृति सौम्य रखना । मध्यम और उत्तम कोटि के गृहस्थ सस्कारी गृहस्थ मध्यम कोटि के गिने जाते है। वे धर्म अर्थात् देशविरति-चारित्र सरलता से पा सकते है । जो गृहस्थ सम्यक्त्वयुक्त श्रावक के बारह व्रत धारण करते हैं, उन्हें यहाँ धर्मपरायण यानी देशविरति चारित्रवाला समझना चाहिए। ये गृहस्थ उत्तम कोटि के गिने जाते है और वे सर्वविरति अर्थात् साधुजीवन को सरलता से स्वीकार कर सकते हैं।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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