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________________ सम्यक चारित्र ६८७ गुणन-परावर्तन-चिंतन आदि जान का भागी होता है, परन्तु उससे प्राप्त होनेवाली सद्गति का भागी नहीं होता।' _ 'जैसे जहाज का निर्यामक जानकार होने पर भी अनुकूल पवन बिना इच्छित बन्दरगाह पर नहीं पहुंच सकता; उसी प्रकार जीव भी ज्ञानी होने पर भी चारित्र-रूपी पवन बिना सिद्धिस्थान को नहीं पा सकता।' भवभ्रमण का महारोग औषधि से रोग मिटता है, ऐसी श्रद्धा हो; औषधि का प्रकार और सेवन-विधि जात हो, पर औषधि सेवन न की जाये तो फिर रोग कैसे दूर होगा? मनुष्य को भव-भ्रमण का रोग अनन्तकाल से लागू है और इस कारण जन्म-जरा-रोग-मृत्यु का अकथ दुःख सहन करना पड़ रहा है । यदि यह रोग मिटे तो फिर जन्म न लेना पड़े, और जन्म के अभाव मे जरा-रोग और दुःख सहन न करना पड़े। तो, इस स्थिति में आपको अनन्त सुख का उपयोग करने का अवसर मिलेगा। इस भव-भ्रमण के रोग को नष्ट करने की असीर दवा चारित्र है-यह भूलना नहीं चाहिए । ___कोई यह समझता हो कि, चारित्र हमारे पास नहीं है, तो कहाँ से लावे, तो यह समझना भूल है । चारित्र बाहर की चीज नहीं है, आपकी ही चीज है । वह आपके पास ही अन्तर में ही छिपी है। ____ यदि यह प्रश्न करें कि, 'चारित्र अन्तर में है, तो प्रकट क्यों नहीं होती. तो इसका उत्तर यह है कि, चारित्र आपके अन्तर में छिपा अवश्य है, पर मोह के आवरण के कारण वह प्रकट नहीं होता। सूर्य अत्यन्त प्रकाशमान है, पर बादल आ जाने से वह छिप जाता है। मोह आपका कट्टर शत्रु है मोह आपका कट्टर शत्रु है और अनेक विधियो से आपको क्षति पहुंचा
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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