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आत्मतत्व-विचार
(३) विनय भी हो, बहुमान भी हो। (४) विनय भी न हो, बहुमान भी न हो।
इनमें पहला और दूसरा भग मध्यम है; तीसरा उत्कृष्ट और चौथा कनिष्ठ है।
अब ज्ञानाचार के चौथे प्रकार उपधान पर आयें। शास्त्रकारों ने उपधान शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है। 'उप-समीपे धीयते-क्रियते सूत्रादिकं येन तपसा तदुपधानम्-जिस तप द्वारा सूत्राटिक समीप किये जायें वह उपधान है। इससे आप देखेंगे कि, उपधान एक प्रकार का तप है और वह सूत्रादि को समीप करने के लिए ही किया जाता है । अर्थात् जो सूत्र अब तक दूर थे, उन सूत्रो को पढ़ने-गुणने का अधिकार प्राप्त नहीं हुआ था, सो इस क्रिया से प्राप्त होता है।
उपधान की क्रिया प्राचीन काल में भी थी ही । श्री समवायाग-सूत्र, श्री उत्तराध्ययन-सूत्र, श्री महानिशीथ सूत्र आदि में इसका स्पष्ट उल्लेख है। काले विणये बहुमाणे यह गाथा भी प्राचीन है। उसमें उपधान का जबकि स्पष्ट निर्देश है, तब उसकी प्राचीनता के विषय में गंका होने का कोई कारण नहीं हैं।
कुछ लोग कहते है कि, 'नमस्कारादि' सूत्र जैन-कुटुम्बों में बचपन से ही सिखाये जाते है और बहुतेरों को कंठस्थ होते है, तो उन्हें उपधान की क्या जरूरत है १' इसका उत्तर यह है कि, 'आज बचपन से जो सूत्र सिखाये जाते है और कठस्थ कराये जाते हैं, वे सस्कारों के आरोपणस्वरूप हैं। इससे वे आवकों की क्रिया में प्रवृत्त हो सकते हैं; पर उन सूत्रो को गुरु से विधिवत् ग्रहण करने पर ही योग्य परिणाम आ सकता है, इसलिए उपधान जरूरी है।'
कुछ लोग कहते हैं कि, "उपधान में हर वर्ष लाखों रुपये का धुआँ होता है। उसका फल तो कुछ दिखता नहीं; तो फिर उपधान कगने से क्या लाभ ?" इसका जवाब भी देना ही चाहिए । आज से चालीस पचास