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आत्मतत्व-विचार
अभिप्राय है कि, 'जिसमें ज्ञान नहीं है, विवेक नहीं है, वह किसी भी प्रकार की आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर सकता।'
एक शास्त्र-वचन है-'सद्दहमाणो जीवो बच्चइ अयरामरं ठाणं ।' इसका सामान्य अर्थ यह है कि, 'जीवादिकतत्त्वों में श्रद्धा रखनेबाला जीव अजरामर स्थान को पाता है। इससे यह न समझे कि, 'मात्र तत्त्वो पर श्रद्धा रखने से ही जीव मोक्ष पाता है और ज्ञान की कोई जरूरत नहीं है।' जीव अभव्य है, उसे कभी सम्यक्त्व की स्पर्शना नहीं होती, इसलिए वह जीवादिक तत्त्वो में श्रद्वावान् नहीं बनता, इसलिए पठित होने पर भी मोक्ष नहीं जाता। परन्तु, भव्य जीव को अमुक समय सम्यक्त्व की स्पर्शना होती है, जिससे कि, वह जीवादिक तत्त्वो में श्रद्धावान् बनता है,
और वह अन्त मे मोक्ष प्राप्त करता है ? यहाँ आशय यह है कि, श्रद्धा के बिना आत्मा मुक्ति में नहीं जा सकता । परन्तु, मुक्ति में जाने के लिए उसे सम्यक्त्व के उपरात सम्यक्-जान और सम्यक् चारित्र की आवश्यकता पड़ती है। अगर आत्मा मात्र सम्यक्त्व से मोक्षगामी बनता हो तो शास्त्रकार 'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:-यह सूत्र कहते ही क्यो ? इसलिए हरएक वाक्य की अपेक्षा समझने की जरूरत है।
शास्त्र-वचन की अपेक्षा समझे बिना उसके अर्थ पर विवाद करनेवालों का हाल दो प्रवासियों जैसा होता है:
दो प्रवासी पुराने जमाने की बात है जबकि, गॉवो में खूब डाके पड़ते थे और शूरवीर पुरुष अपने प्राणों की बाजी लगा कर भी बचाव करते थे। इस तरह एक गाँव में डाका पड़ा, तो एक वीर पुरुष ने गॉव की रक्षा करते हुए अपनी काया का बलिदान दे दिया । इसलिए, गाँव के लोगो ने उसकी स्मृति कायम रखने के लिए उसका एक पुतला खड़ा किया और उसके