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आत्मतत्व-विचार का विनय होना आवश्यक है। यहाँ विनय से प्रणाम, अन्तरग प्रेम, गुणानुवाद, अवगुगवर्जन और आशातना-वर्जन ये पॉच वस्तुएँ समझनी चाहिए | मतलब यह कि, जिनका विनय करना हो, उन्हें प्रणाम अवश्य करना चाहिए। फिर, उनके प्रति अन्तरंग प्रेम प्रकट करना चाहिए । हाथ नोड़े, मस्तक नमावे, पर उनके प्रति अन्तरग प्रेम न हो तो वह शिष्टाचार रूखा हो जाता है । जिनका विनय करना हो, उनका गुणानुवाद करना चाहिए । गुणानुवाद अर्थात् गुण की स्तुति, न कि झूठी खुशामद ! उसी प्रकार जिसका विनय करना हो उसके अवगुणों को ढाँकना चाहिए और इस प्रकार वर्तना चाहिए कि, उनकी आशातना न हो। विनय दस वस्तुओं का करना है । इस विषय मे कहा है किअरिहंत सिद्ध चेइय, सुए अधम्मे असाहुवग्गे य ।
आयरिय उवज्झाए, पवयणे दंसणे विणो । __ 'अर्हत्, सिद्ध, चैत्य, श्रुत, धर्म, साधु, आचार्य, उपाध्याय, प्रवचन और दर्शन इन दस का विनय करना चाहिए।'
अर्हत् का विनय अर्थात् वर्तमान काल में विहरते हुए श्री सीमधर स्वामी आदि का विनय ! सिद्धों का विनय यानी आठों कर्मों को खपाकर सिद्धशिला पर विराजे हुए सिद्ध भगवतों का विनय । चैत्य का विनय यानी जिनप्रतिमा और जिनमदिर का विनय ।
जिनमदिर में जानेवाले को ८४ प्रकार की आशातना वर्जनी चाहिए।
जिनमंदिर में वर्तने के ८४ नियम (१) कफ आदि नहीं डालना। (२) जुआ नहीं खेलना । (३) कलह नहीं करना।