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सम्यक्त्व
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परमार्थसस्तव अर्थात् परमार्थभूत जीवाजीवादि तत्त्वों का परिचय । उनकी श्रद्धा इस प्रकार करनी चाहिये
(१) शुभ-अशुभ कर्मों का कर्ता, शुभ-अशुभ कर्मों का भोक्ता, संसर्ता-परिनिर्वाता, चैतन्यवत, उपयोग लक्षण जीव पहला तत्त्व है। इस नीव-तत्त्व की पहचान कराने के लिए हमने इस व्याख्यानमाला के प्रारम्भ में सोलह व्याख्यान दिये हैं।
(२) चैतन्यरहित धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल ये पाँच द्रव्य दूसरा अनीव तत्त्व है । व्याख्यानमाला में इस तत्त्व का भी ययार्थ परिचय दिया है।
(३) शुभकर्म अथवा पुण्य तीसरा तत्त्व है। (४) अशुभकर्म अथवा पाप चौथा तत्त्व है।
(५) जिससे कर्म का आत्मा की ओर आगमन हो, वह आश्रव. नामक पाँचवाँ तत्त्व है।
(६) जिससे कर्मों का आत्मा की ओर आना रुके, वह संवरनामक छठा तत्त्व है।
(७) वाह्य-अभ्यन्तर तप द्वारा कर्म को आत्मा से अमुक अंश में अलग करना निर्जरा-नामक सातवाँ तत्त्व है। कर्म निर्जरा पर एक स्वतंत्र व्याख्यान (तेंतीसवाँ व्याख्यान ) दिया जा चुका है।
(८) कर्मों का आत्मप्रदेशों के साथ क्षीरनीरवत् सम्बन्ध होना बन्धनामक आठवा तत्त्व है।
(९) कर्मों का आत्मप्रदेश से सर्वथा प्रथक होना मोक्ष-नामक नवाँ तत्त्व है।
इन तत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धा जमे तो ही आत्मविकास साधा जा । सकता है।
प्रश्न-इनमे कोई तत्त्व कम माना जाये तो?