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आत्मतत्व-विचार
का सचित्त जल भी उन्हें नहीं कल्पता।" इतने में किसी ने आकर मार्यवाह के पास पक्के आमों का थाल रखा । उसने हर्षित होकर कहा--- 'भगवन् ! आप ये ताजा फल ग्रहण करके मुझ पर अनुग्रह करें।"
आचार्य बोले- "हे देवानुप्रिय ! साधुओं को सचित्त वस्तुओं का त्याग होता हैइसलिए इन सचित्त फलों को लेना हमे कल्पता नहीं है।" ___यह सुनकर धन सार्थवाह को अत्यन्त आश्चर्य हुआ और कहने लगा-"आपके व्रतनियम अति दुष्कर मालूम होते हैं। पर आप मेरे साथ चरें, आपको जैसा कल्पता होगा, वैसा आहार-पानी दूंगा।"
धन-सार्थवाह ने मगल मुहुर्त मे बड़े काफिले के साथ प्रयाण किया । धर्मघोष-आचार्य भी सपरिवार उसके साथ चले। वे विषम वनों को पार करते हुए, नदी-नालों को पार करते हुए और ऊँची-नीची भूमि से गुजरते हुए अनुक्रम से एक महा अरण्य में आ पहुँचे। उस समय वर्षा ने अपना ताडव शुरू किया और आने-जाने के सब मार्गों को कॉटे, कीचड़
और पानी से भर दिया | आगे बढ़ना अशक्य जानकर धन-सार्थवाह ने उसी अरण्य में स्थिरता की और सार्थ-संघ के सत्र आदमियों के लिए वर्षा ऋतु निर्गमन करने के लिए वहाँ छोटे-बड़े आश्रय खड़े कर दिये। किसी ने सच ही कहा है-"देशकाल के अनुसार उचित क्रिया करनेवाला दुःखी नहीं होता।"
श्री धर्मघोष-आचार्य ने ऐसा एक आश्रय माँग कर उसमे अपने शिष्यों सहित आश्रय लिया और वे स्वाध्याय, तप और धर्म-ध्यान में अपने समय बिताने लगे।
यहाँ अप्रत्याशित रूप से दीर्घकाल तक रुकने के कारण, साथ के लोगों की खान-पान सामग्री समाप्त हो गयी और वे कद, मूल, फल, फूल आदि से अपना निर्वाह करने लगे। यह जानकर धन-सार्थवाह बड़ा चिंतातुर हुआ और सब की फिक्र करने लगा । तभी उसे श्री धर्मघोष-आचार्य की