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पाप-त्याग
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लाली के बहुत आश्वासन देने पर माँ-बाप उसे साथ ले गये । विवाह पूरा हुआ और सभी गाड़ी में बैठकर अपने घर वापस चले । माँ-बाप को सतोप था कि, लाली के कारण कोई उलाहना इस बार सुनने को नहीं मिला ।
रास्ते में जब गाड़ी ऊँचे-नीचे रास्ते से चलने लगी, तो लाली का कपड़ा भींग गया । पता लगा कि, चलते समय उसने पानी भरा एक मिट्टी का वरतन अपने कपडे में छिपा लिया था और वह पानी छलक रहा है । इस पर कहावत है- "हाल जाये, हवाल जाये, पर लाली का
लक्षण न जाये !"
हमारी आत्मा सद्गुरु का उपदेश सुनकर या पापकर्मों के फलों से काँपकर अनेक बार निर्णय करता है कि, भविष्य में पाप नहीं करूँगा, लेकिन वह पुनः पाप करने लगता है और कर्म के बोझ से बोझिल होता जाता है । यहाँ भगवतीसूत्र का एक प्रसग याद आता है।
चरम तीर्थकर श्रमण भगवान् महावीर कौशाम्बी नगरी में पधारे । उस समय उदाथी राजा, उसकी फूफी जयन्ती श्राविका और उसकी माता मृगावती भगवान् के दर्शन को आये ।
जयन्ती श्राविका समकितधारी थी ! तत्त्वज्ञानी थी । अधिकाश साधुमुनि उसकी विशाल वस्ती में उतरते । वहाँ निवास और ज्ञान-ध्यान आदि करने को अच्छी व्यवस्था थी । वह स्वयं भी साधु-मुनियों की भक्ति उत्तम रीति से करती । भगवान् की तीन लाख अठारह हजार श्राविकाओं में वह इनी-गिनी सर्वश्रेष्ठों में से एक थी ।
( ये श्राविकायें व्रतधारी थीं । सामान्य श्राविकाओं की इनमें गिनती नहीं की गयी । श्री वीर प्रभु के विशाल परिवार में चौदह हजार मुनि थे, छत्तीस हजार साध्वियाँ, तीन सौ चौदह पूर्वधारी श्रमण, तेरह सौ अवधिज्ञानी, सोलह सौ वैक्रियक लब्धिवाले, उतने ही केवली और उतने ही अनुत्तर विमान को जानेवाले, पाँच सौ मनः पर्यवज्ञानी, चौदह सौ वादी,