________________
३४
आत्मतत्व-विचार और ज्ञान ये दोनो पृथक् वस्तुएँ है । उदाहरण के रूप में यह कहे कि 'हथौडे से कारीगरी की चीजें निर्मित होती हैं, तो हथौडा और वह वस्तु ये दो वस्तुएँ एक नहीं ठहरती, बल्कि दो वस्तुएँ ठहरती हैं। ज्ञान इन्द्रियों का असाधारण धर्म (गुण ) नहीं है, कारण कि जो जिसका असाधारण धर्म होता है वह उसके बगैर नहीं रह सकता। उष्मा बिना अग्नि या आर्द्रता बिना जल की कल्पना कौन कर सकता है ? जब इन्द्रियो का असाधारण धर्म जान नहीं है, तब उन्हे 'आत्मा' कैसे मान सकते हैं ?
जान 'आत्मा' का असाधारण धर्म है, उसी से आत्मा 'यह वस्तु ऐसी है', 'यह वस्तु वैसी हैं', ऐसा जान सकती है । जब कि इन्द्रियाँ स्वय न तो कोई वस्तु जान सकती है न उनका अनुभव याद रख सकती है। वह अनुभव तो चैतन्य के भंडार में ही पड़ा रहता है और निमित्तानुसार व्यक्त होता है।
अगर इन्द्रियाँ स्वय ही जान सकतीं, तो निद्रा में भी उनका जानना जारी रहता और मृतावस्था में भी उनकी इस प्रवृत्ति में कोई अन्तराय न आया होता। लेकिन, ऐसा होता नहीं है यह बात सिद्ध है।
इन्द्रियो द्वारा ज्ञान किस तरह होता है, यह ठीक तरह जान लिया जाये, तो इन्द्रियो को आत्मा मान लेने की भूल कोई न करे; इसलिए इस सम्बन्ध में यहाँ कुछ विवेचन किया जाता है।
हर इन्द्रिय के द्रव्य और भाव दो प्रकार है-अर्थात् द्रव्य-स्पशनेन्द्रिय और भाव-स्पर्शनेन्द्रिय, द्रव्य-रसनेन्द्रिय और भाव-रसनेन्द्रिय | इसी प्रकार सब इन्द्रियो के विषय में समझ लेना चाहिए । द्रव्येन्द्रिय में दो विभाग होते हैं। उनमें से एक भाग को निर्वृत्ति कहा जाता है और दूसरे को उपकरण कहा जाता है। इस निति और