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________________ धर्म का पाराधन ५७३ सभी हितेच्छु दिलासा देकर चले गये। भूतमति ने फिर दो लाशें देखी । एक को यज्ञदत्ता और दूसरे को देवदत्त मानकर उन्हें गगा में प्रवाह करने सुबह घर से चल पड़ा। योगानुयोग क्या हुआ अब यह सुने । जिस ग्राम में यज्ञदत्ता और देवदत्ता रहते थे, वह ग्राम रास्ते में पड़ा और उसमे प्रवेश करते ही वे दोनों सामने पड़ गये । भूतमति ने उन्हें देख लिया था। अत., दोनो ही पडित के चरण पर गिर कर क्षमायाचना करने लगे। भूतमति बोला--"अरे तुम दोनों कौन हो ? और, किसके साथ बात कर रहे हो ?" . देवदत्त ने कहा-"आपने देखा नहीं | यह आपकी प्रियतमा यज्ञदत्ता है और मैं आपका शिष्य टेवदत्त हूँ। मैं कठापुर में विद्यादान करनेवाले पडित भूतमति से बात कर रहा हूँ।" _ भूतमति के दिमाग में यह बात भी नहीं आयी। वह कहने लगा"अरे दुष्टों ! तुम क्या कह रहे हो ? तुम लोग निश्चय ही मुझे बेवकूफ बना रहे हो, पर मैं इस चक्कर में आनेवाला नहीं हूँ। मेरी पत्नी यजदत्ता और मेरा शिष्य देवदत्त तो आग में जलकर मर गये । मै उनकी अस्थि प्रवाहित करने जा रहा हूँ। तुम लोग यजदत्ता और देवदत्त से लगते अवश्य हो, पर निश्चय ही तुम दोनों वह नहीं हो ! कदाचित् तुम दोनो प्रेत हो ! प्रेत प्रायः आदमी को भ्रम में डालते हैं। पर, याद रखो मैं चाहूँ तो मत्रबल से तुम्हें भस्म कर दूं। तुम दोनो मेरी नजर के सामने से हट जाओ नहीं तो परिणाम बुरा होगा।" __ यजदत्ता और देवदत्त जो चाहते थे, वही उन्हें मिल गया। वे दोनों जल्दी-जल्दी भागे । इधर भूतमति गगातट पर पहुंचा और अस्थि प्रवाह करते हुए बोला- "हे भगवन् । जहाँ भी यज्ञदत्ता और देवदत्त हो सुखी रहें । वे बड़े पवित्र हैं और आपकी दया के पात्र हैं।"
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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