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धर्म की आवश्यकता
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धर्म जीवन में आवश्यक वस्तु न हो तो महापुरुष उसका उपदेश किसलिए करें ? सत्र तीर्थंकर केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति के बाद धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं: जिससे ससार के प्राणी उसका आधार लेकर अपार ससार सागर तरने में समर्थ होते है ।
सबसे पहले स्वीकार
असाधारण प्रजाधारी गणधर भगवत उस धर्म को करते हैं । और, उसका उपदेश तथा प्रचार करने में मानते हैं | आचार्य, उपाध्याय तथा साधु-मुनि भी उसी सरण करते हैं और, धर्म का पालन करने कराने में तत्पर रहते हैं । क्या आपको लगता है कि, ये समझे बिना ही धर्म की बातें करते है ?
जीवन का साफल्य मार्ग का अनु
निर्ग्रथ वचन में कहा
है
लध्धूण माणुसत्तं कहंचि श्रई दुल्लहं भवसमुद्दे । सम्मं निउ जियव्वं, कुसलेहि सया वि धम्मंमि ॥
- भवसमुद्र मे अतिदुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर चतुर मनुष्य को किसी भी प्रकार सदा उसे धर्म मे अच्छी तरह लगाना चाहिए ।
अन्य दर्शनो ने भी धर्म का उपदेश किया है, उनका लक्ष्य है कि, मनुष्य सस्कारी बने, श्रेय का मार्ग समझे और आध्यात्मिक प्रगति साध सके। पर, आज तो यह कहनेवाले निकल पड़े है कि, 'धर्म अफीम- जैसा है, कारण कि उसका सेवन करनेवाले को साम्प्रदायिकता का जुनून चढ़ता है । उस जुनून से आपसी झगड़े होते हैं और समाज का सघटन टूट जाता है । इसलिए धर्म की आवश्यकता ही नहीं है ।"
यहाँ हमें कहना है कि, बिना विचारे कुछ भी बोलना सत्पुरुष का लक्षण नहीं है । अपनी आँखों पर हरे रंग का चश्मा चढ़ा लें और फिर ऐलान करें कि दुनिया हरे रंग की है, तो यह कौन मानेगा ? उसमे तो लाल, पीला, काला, सफेद आदि रग प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं ।
सुज पुरुष को चाहिए कि किसी भी मत का प्रतिपादन करने से