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आत्मतत्व-विचारजन्म पाता है। शास्त्रकारो ने मनुष्य-जन्म को दश-दृष्टान्त दुर्लभ कहा है, अर्थात् आत्मा बड़े कट से और दीर्घकाल के बाद मनुष्य-जन्म पाती है । तुमने पहले कहा कि, 'बहुत से लोग जीवन में कोई भी धर्म किये बिना सुखी रहते है और समाज में मान-पान पाते है'; यह इस पुण्य की पूंजी का प्रभाव है। अब इस पर विचार करो कि, पुण्य की पूंनी खाकर खत्म कर देनी चाहिए या बढ़ानी चाहिए । मनुष्य का कर्तव्य । यही है कि, वह रोज धर्म करता रहे और अपनी पुण्य की पूंजी मे वृद्धि करे।
"यदि मनुष्य अपनी सचित कमाई बैठा-बैठा खा जाये और उसमें अभिवद्धन की कोई युक्ति न करे तो फिर उसकी दशा अंत मे क्या होती है, यह आप जानते ही हैं । पैसे-पैसे की मुहताजी आ जाती है और दूसरे पर आश्रय लेना पडता है। उसके विरुद्ध जो व्यक्ति पूंनी खाना तो है, पर उसमें नित्य कुछ डालता जाता है, उसकी टगा वह नहीं होती। वह सदा सुखी रहता है । उसकी प्रतिष्ठा प्रकट रहती है । सुज्ञ व्यक्ति ऐसी ही दगा पसंद करते हैं। मनुष्य का कर्तव्य यही है कि, वह नित्य पुण्य करके अपने धर्म में वृद्धि करता रहे। ___ "तुमने कहा-'धर्म बिना जीवन मे कोई काम अटका नहीं रहता', पर मोटर तभी तक चलती है, जब तक उसमे पेट्रोल है, बाद मे रुक कर खड़ी हो जाती है । उसी तरह जहाँ तक मनुष्य का पुण्य है, तभी तक सब अमन-चमन और सुखसाहित्री है । पुण्य के समाप्त हो जाने पर उस सत्रका एकाएक अन्त आ जाता है । कहा है
पुण्य-विवेक-प्रभाव से निश्चय लक्ष्मीनिवास
जब तक तेल प्रदीप मे तव तक ज्योतिप्रकास जीवन तो मत्रका देर या सवेर से पूरा हो जाता है। पर, जीवन वही