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________________ आत्मतत्व-विचार युवक ने कहा-"जैसे वृक्ष-वृक्ष मे अन्तर है; फूल-फूल में अन्तर है, केले ही प्राणी-प्राणी में अन्तर होता है। मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है, लिए उसकी बराबरी क्षुद्र कोटि के प्राणियों के साथ नहीं की जा सकती।" हमने कहा--"तुम सब प्राणियों में मनुष्य को श्रेष्ठ किस बात में मानते हो ? __ युवक ने कहा-"मनुष्य में मन है, बुद्धि है, इसलिए उमे सब प्राणियो में श्रेष्ठ मानते हैं। मनुष्य अपनी बुद्धि से अपना स्वार्थ समझ सकता है और उसके लिए आवश्यक प्रवृत्ति कर सकता है।" हमने कहा- "इसका अर्थ तो यह हुआ कि, अन्य प्राणी निस्वार्थी हैं चोर मनुष्य स्वार्थी है । लेकिन, स्वार्थी होना, केवल अपने पेट की चिंता कना, कोई श्रेष्ठता का लक्षण नहीं है। जो लोग स्वार्थी होकर दूसरों का रहित करते हैं, उन्हें हम श्रेष्ठ नहीं कहते, बल्कि अधम या नीच कहते हैं !" यहाँ वह युवक सहमा । अब उसे कोई नयी दलील न सृझी । हमने रहा-"महानुभाव ! तुमने शिक्षा तो अच्छी प्राप्त की, लेकिन हमारे शहापुरुषों ने जो कहा है, उसे पढ़ा सोच नहीं है । तुम्हें शेक्सपियर, शेली, या मिल्टन के काव्य रुचिकर लगते हैं, पर अपने सन्त पुरुषो के सुभापित सुचिकर नहीं लगते । अपने एक सुभापित में कहा है : वुद्धः फलं तत्त्वविचारणं च, देहस्य सारं व्रतधारणं च । अर्थस्य सारं किल पात्रदानम्, वाचः फलं प्रीतिकरं नराणाम् ॥ -बुद्धि का फल तत्त्व की विचारणा है, देह का फल व्रतधारण है, धन र फल मुपात्र-दान है, और वाणी का फल दूसरों को प्रीतिकर होना है ।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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