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________________ ५०६ आत्मतत्व-विचार यहाँ प्रथम प्रहर और दोपहर के बाद के प्रहर को काल-संक्षेप गिना गया है । और, अमुक स्थिति का व्यक्ति भिक्षा दे तो ही लेना यह भावसक्षेप है। इस गिरे हुए जमाने में भी जैन महात्मा अभिग्रह धारण करते हैं । उनमे कुछ अभिग्रह तो बहुत उग्र होते हैं। हाथी लडडू दे तो ही आहार लेना यह कोई सामान्य अभिग्रह नहीं है। माता, पुत्री और पुत्रवधू तीनों साथ मिलकर आहार दें तो ही लेना यह भी कठोर अभिग्रह है। (४) रस-त्याग-मधु, मदिरा, मास और मक्खन ये चार चीजें मुमुक्षुओं के लिए सर्वथा अभक्ष्य हैं। दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और पक्कान छोड़ना रसत्याग कहलाता है। इनमे से कुछ कम को छोड़ना भी रस-त्याग है । आयंबिल रस त्याग की मुख्य तपश्चर्या है । (५) कायक्लेश-संयम के लिए काया पर पड़नेवाला कष्ट सहन कर लेना कायक्लेग तप है । डाकिया चलता है, लकडहारा घूमता है, किसान कष्ट सहता है, पर ये उनके कायक्लेश तप नहीं हैं, कारण कि, उनमें कर्मों की निर्जरा करने की भावना नहीं है। (६) संलीनता-इन्द्रियों को काबू में रखना, कपायों का कारण - उपस्थित होने पर भी कपाय न करना तथा मन-वचन-काया की यथासम्भव कम प्रवृत्ति करना सलीनता है। स्त्री, पुरुष और नपुसक के पास से रहित एकान्त विशुद्ध स्थान में रहना भी संलीनता है। (७) प्रायश्चित-जहाँ तक छद्मस्थता है, अपूर्णता है, तहाँ तक भूलें होना सम्भव है । पर, भूल का भान होने पर प्रायश्चित करना चाहिए. और उसको गुरु के सामने स्वीकार करके उनके दिये हुए प्रायश्चित को स्वीकारना चाहिए । इस तरह पाप का प्रायश्चित करने से आत्मा की शुद्धि होती है। यह प्रायश्चित नामक आम्यातरिक तप है। यक्षाविष्ट अर्जुनमाली ने अनेक स्त्री-पुरुषों की हत्या की थी, पर अपनी भूलों का भान होने पर सच्चे हृदय से पश्चात्ताप किया तो सावुत्व पाकर मुक्ति का वरण किया । दृढ प्रहारी आदि के दृष्टात भी ऐसे ही हैं।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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